लखनऊ: समाजवादी पार्टी (सपा) के नौ बार के विधायक रहे आजम खां के गढ़ रामपुर में होने वाला उपचुनाव बड़ा ही रोचक जंग लाने वाला है। यहां पर होने वाले चुनाव के लिए कांग्रेस और बसपा ने अपना उम्मीदवार पहले ही घोषित कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अभी तक यहां पर कोई प्रत्याशी घोषित नहीं किया है। सपा के सांसद आजम इन दिनों भूमाफिया से लगाकर बकरी चोरी के तक के कई दर्जन मुकदमे झेल रहे हैं। वह इस बीच में कई माह से अपने घर रामपुर भी नहीं आए हैं। जहां एक ओर आजम के सामने अपनी सीट बचाने की चुनौती है, वहीं सपा को अपना वोटबैंक सुरक्षित रखने की परीक्षा है।
रामपुर विधानसभा सीट के इतिहास को देखें तो आजम यहां सन् 1980 से लेकर अब तक चुनाव जीते हैं। हां एक बार 1996 में कांग्रेस से वह चुनाव हारे थे। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2017 में जब भाजपा की सुनामी आई थी तब आजम अपनी और अपने बेटे की सीट बचाने में कामयाब रहे थे। अब उन्हीं के इस्तीफे के बाद उपचुनाव हो रहा है।
इस बार परिस्थितियां अलग हैं, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी पहली बार उपचुनाव के मैदान में है। वह यहां पर मुस्लिम प्रत्याशी उतार कर दलित मुस्लिम का गठजोड़ बनाने का प्रयास करके रामपुर में अपनी कामयाबी दिखाना चाह रही है। बसपा ने यहां से कस्टम विभाग के पूर्व अधिकारी जुबेर मसूद खान को टिकट दिया है। लेकिन कांग्रेस ने भी रामपुर विधानसभा सीट के लिए अरशद अली खान को टिकट देकर बसपा का खेल खराब करने प्रयास किया है।
रामपुर के एक बसपा नेता ने कहा, "बहन जी ने यहां पर प्रत्याशी का चयन सोच-समझकर किया है। यहां पर मुस्लिम और दलित का अच्छा गठजोड़ होगा। रामपुर विधानसभा के विधायक ने यहां पर अपनी हुकुमत करने के अलावा कोई काम नहीं करवाया है।"
रामपुर के स्थानीय जानकार अरशद बताते हैं कि रामपुर सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। ऐसे में यहां पर कुछ मुस्लिमों के वोट बंट जाएंगे, क्योंकि कुछ आजम के खिलाफ हैं और कुछ उनके साथ हैं। ऐसे में यहां अभी यह कह पाना मुश्किल है कि चुनाव कौन जीतेगा, क्योंकि अभी सभी पार्टियों ने अपने प्रत्याशी नहीं घोषित किए हैं। भाजपा का प्रत्याशी भी बहुत मायने रखता है। अगर यहां से जयप्रदा चुनाव लड़ी तो जंग और भी रोचक होगी।"
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजीव श्रीवास्तव कहते हैं, "रामपुर में करीब 52 प्रतिशत मुस्लिम और 17 प्रतिशत दलित हैं। आजम जब लोकसभा चुनाव लड़ रहे थे, तो एक वर्ग इनका विरोध भी कर रहा था। कांग्रेस की नवाबों का परिवार भी इनका धुर विरोधी रहा है। किसी भी तरह से वह अपने प्रत्याशी के साथ खड़ी होती हैं तो आजम के परिवार के लिए यह चुनाव आसान नहीं रहेगा।"
बसपा और कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशी उतारने के कारण मुस्लिम वोटों का बंटवारा हो सकता है। भाजपा को बढ़त भी मिल सकती है, लेकिन लोकसभा चुनाव में एक खास बात देखने को मिली है कि मुस्लिमों ने उन्हें पसंद किया है। आजम के जितने पंसद करने वाले हैं, उतने ही उनके यहां पर विरोधी हैं।
उन्होंने कहा "सपा अब कन्नौज की पूर्व सांसद डिम्पल यादव को चुनाव लड़ाने का रिस्क नहीं लेगी। एक बार कन्नौज से वह लोकसभा चुनाव हार चुकी है। यह यादव परिवार का गढ़ माना जाता है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव अब ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे पार्टी का आत्मविश्वास कमजोर होता है। भाजपा यहां पर सत्ता में है। आजम के ऊपर मुकदमे हैं। अगर डिम्पल यहां से चुनाव हारती हैं तो यह पार्टी कार्यकर्ताओं को निराश करेगा। राजनीतिक रूप से आज की तारीख मे यह अच्छा कदम नहीं दिख रहा है। मुकदमों में फंसे आजम खां गिरफ्तारी के डर से सीधे चुनाव प्रचार में उतरने से बचेंगे। ऐसे में डिंपल को प्रत्याशी बनाने का जोखिम सपा नहीं ले सकती है। भाजपा अगर जयप्रदा को टिकट देती है तो पार्टी के लिए अच्छी प्रत्याशी हो सकती हैं। मुस्लिम वोट का बंटवारा होने और कुछ दलितों के वोट मिलने से भाजपा को बढ़त मिल सकती है। मुस्लिम वोट बहुत है इस कारण से यह कहना मुश्किल है कि वोटों का कितना बंटवारा हो पाएगा।"
वहीं एक अन्य विश्लेषक प्रेमशंकर मिश्रा का कहना है, "रामपुर आजम के लिए प्रतिष्ठा की सीट है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने पूरी ताक झोंक दी थी तब उन्होंने अपनी सीट अच्छे मार्जिन से जीती थी। उन्होंने 2017 में भी अपनी और अपने बेटे की सीट पर विजय हासिल की थी। यह आजम का बहुत मजबूत किला है। इस समय आजम की प्रशासनिक और सरकारी घेरा बंदी है। ऐसे में यह उनकी नाक का सवाल है। भाजपा इस गढ़ को तोड़ना चाहती है। यहां एक दिलचस्प लड़ाई होगी। आजम के लिए यह अस्तित्व की सीट हैं। अगर यहां के परिणाम नकारात्मक आते हैं तो उनके लिए राजनीतिक संकट पैदा हो सकता है। आजम को मुकदमों पर साहनभूति भी मिल सकती है। सपा बसपा का अलग लड़ना और कांग्रेस का मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा करना उन्हें नुकसान दे सकता है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का मुस्लिम प्रत्याशी न उतारना उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ था।"