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मथुरा के फालैन गांव में 21 मार्च को तड़के ऊॅंची-ऊॅंची लपटों से होकर निकलेगा पंडा

उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में बृहस्पतिवार को तड़के चार बजे फालैन गांव का एक पंडा ऊंची लपटों से बीच से हो कर निकलेगा।

Reported by: Bhasha
Published on: March 20, 2019 12:18 IST
मथुरा के फालैन गांव में 21 मार्च को तड़के ऊॅंची-ऊॅंची लपटों से होकर निकलेगा पंडा- India TV Hindi
मथुरा के फालैन गांव में 21 मार्च को तड़के ऊॅंची-ऊॅंची लपटों से होकर निकलेगा पंडा

मथुरा: उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में बृहस्पतिवार को तड़के चार बजे फालैन गांव का एक पंडा ऊंची लपटों से बीच से हो कर निकलेगा। प्राचीन मान्यता है कि विष्णुभक्त प्रहलाद को जब उसके पिता हिरण्यकश्यप ने हरि का भजन करने पर आग में जलाकर मार डालना चाहा था, तो प्रहलाद विष्णु की कृपा से सुरक्षित बच गये लेकिन उनको गोद में लेकर बैठी उनकी बुआ होलिका आग में भस्म हो गई थी जबकि उसे आग से न जलने का वरदान प्राप्त था। इसी मान्यता के चलते इस गांव में बरसों से ब्राह्मण समाज का एक प्रतिनिधि आग की ऊंची लपटों के बीच से गुजरता है।

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इस बार यह जिम्मेदारी बाबूलाल पण्डा (50) ने ली है। वह रात भर पूजा-अर्जना करने के बाद 21 मार्च को तड़के स्नान करेगा और फिर होलिका की लपटों के बीच से निकलेगा। गांव के प्रधान जुगन चौधरी ने बताया, ‘फालैन ग्राम पंचायत में पैगांव, सुपाना, राजागढ़ी, भीमागढ़ी व नगरिया गांव शामिल हैं जो सामूहिक होली मनाते हैं।’’

उन्होंने बताया कि होलिका दहन वाले दिन सुबह महिलाएं पूजा करती हैं और दोपहर से भजन कीर्तन आरंभ होता है। शाम को पण्डा पूजा पर बैठता है। वह एक दिया जलाकर उसकी लौ की आंच देखता है। जब उसे दिए की लौ गरम के बजाय ठण्डी महसूस होने लगती है तभी वह निकट बने कुण्ड में स्नान के लिए जाता है।

चौधरी ने बताया कि पंडा को स्नान के बाद उसकी बहिन उसे अपनी साड़ी की कोर से होलिका का रास्ता दिखाती है तथा जल से भरे लोटे से धार बनाती हुई उस ओर जाने का इशारा करती है। उन्होंने बताया कि इसके बाद पण्डा धधकती होली में से होकर दूसरी ओर निकल जाता है। आश्चर्यजनक बात यह है कि अपने आकार से तीन गुनी ऊॅंची लपटों के बीच से होकर गुजरने पर न तो उसका बाल बांका होता है और न ही अंगारों से उसके पैरों में कोई जलन होती है।

जुगन चौधरी ने बताया, ‘इस रस्म के लिए पण्डा एक माह तक ब्रह्मचारी की तरह जीवन व्यतीत कर कठिन साधना करता है। वह अन्न-जल त्याग कर केवल फलाहार कर जीवित रहता है। इस बार यह जिम्मेदारी इंद्रजीत पण्डा के पुत्र बाबूलाल पण्डा ने ली है।’ उन्होंने बताया, ‘जब पण्डा इस गांव की परंपरा के लिए यह त्याग करता है तो गांव के लोग भी उसकी पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरा करने के लिए अपनी-अपनी उपज का एक हिस्सा उसके परिवार को देते हैं।’’

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