जयपुर: राजस्थान में जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं वैसे-वैसे वहां की राजनीतिक सरगर्मी बढ़ती जा रही है। राज्य में सत्ता को लेकर लड़ाई जितनी बीजेपी और कांग्रेस के बीच नहीं हुई उससे ज़्यादा कांग्रेस के अंदरखाने ही हुई। इन चार सालों में ऐसे कई मौक़े आए, जिससे लगा कि अब गहलोत सरकार का जाना तय है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अशोक गहलोत का जितना विरोध बीजेपी और उनके नेताओं ने नहीं किया, जितना उनके ही डिप्टी रहे सचिन पायलट ने किया। वैसे तो पायलट ने गहलोत के ख़िलाफ़ कई दांव चले लेकिन अब उन्होंने संभवतः अपना आख़िरी दांव चला है। अब सचिन पायलट खुल कर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री और उनकी सरकार का विरोध कर रहे हैं।
इसी क्रम वे 11 अप्रैल को जयपुर के शहीद स्मारक पर ने अपने समर्थकों के साथ भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राज्ये सिंधिया के कथित भ्रष्टाचार के आरोपो की जांच करवाने के लिए अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ 1 दिन के अनशन पर बैठ गए। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें दिल्ली बुला लिया गया और माना जा रहा है कि आलाकमान बुधवार 12 अप्रैल को कोई बड़ा फ़ैसला ले सकता है। हालांकि सचिन पायलट के इस अनशन को पार्टी के राज्य प्रभारी सुखविंदर सिंह रंधावा ने पार्टी विरोधी गतिविधि करार दिया था और उनसे पार्टी फ़ोरम पर बातचीत करने को कहा था।
गहलोत बनाम पायलट: एक पुराना इतिहास
ऐसा नहीं है कि राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच पहली बार तलवारें खिंची हों। इससे पहले भी दोनों के बीच मनमुटाव रहे हैं और दोनों नेता एक-दूसरे के ख़िलाफ़ सार्वजनिक मंचों से भी बोलते रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इन दोनों नेताओं के बीच यह दुश्मनी नई हो। इससे पहले भी सचिन पायलट के पिता पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलट भी अशोक गहलोत के बीच रिश्ते भी नीम के पत्ते की तरह कड़वे ही रहे हैं। इस दोनों के बीच की दुश्मनी भी वहीं से शुरू होती है। सन 1980 के दौरान लोकसभा चुनावों में जहां अशोक गहलोत जोधपुर से चुनाव लड़कर दिल्ली पहुंचते हैं तो वहीं राजेश पायलट भी भरतपुर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचते हैं। दोनों ही नेता कांग्रेस आलाकमान के नज़दीक होते हैं लेकिन 1990 के दशक में राजीव गांधी के निधन के बाद राजेश पायलट की पकड़ कांग्रेस पर कुछ कम हो जाती है।
सीताराम केसरी के ख़िलाफ़ अध्यक्षी का चुनाव लड़ जाते हैं राजेश पायलट
साल 1994 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार होती है और प्रधानमंत्री होते हैं पीवी नरसिम्हा राव। उस समय प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से अशोक गहलोत की नज़दीकी बाढ़ जाती है और वे राजेश पायलट को नज़रंदाज़ करके गहलोत को राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष बना देते हैं। यह बात राजेश पायलट के दिल में घर कर जाती है लेकिन पार्टी अनुशासन के कारण वह इस फ़ैसले को स्वीकार कर लेते हैं। साल1996 में जब कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद का चुनाव होता है तो गांधी परिवार सीताराम केशरी को अपना कैंडिडेट बनाकर उतारती है। वहीं राजेश पायलट भी अध्यक्ष पद की दावेदारी करते हैं। यह बात कहीं न कहीं गांधी परिवार को चुभती है लेकिन पार्टी लोकतंत्र की वजह से सब इस फैसले को नजरंदाज करते हैं।
इस दौरान अशोक गहलोत खुल कर राजेश पायलट की उम्मीदवारी का विरोध करते हैं और सीताराम केशरी चुनाव जीतकर अध्यक्ष बन जाते हैं। अशोक गहलोत का यह फैसला उन्हें गांधी परिवार के और भी नजदीक पहुंचा देता है और कभी राजीव गांधी के खास कहे जाने वाले राजेश पायलट को और भी दूर। सीताराम केसरी का समर्थन करने के फैसले का फल अशोक गहलोत को सन 1998 में मिलता है, जब कांग्रेस राजस्थान में चुनाव जीतती है तो अशोक गेहलोत को पहली बार मुख्यमंत्री बनाया जाता है। इस दौअर्ण भी कांग्रेस आलाकमान राजेश पायलट को नजरंदाज करता है और इसके बाद से उनका राजनीतिक जीवन और भी ढलान की तरफ चला जाता है।
जीतेंद्र प्रसाद का भी समर्थन कर देते हैं पायलट
इसके बाद सन 2000 में जब सोनिया गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ती हैं तो उनके विरोध में जीतेन्द्र प्रसाद ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। उनके समर्थन में राजेश पायलट खुलकर आ जाते हैं। लेकिन अशोक गहलोत उनके उलट सोनिया गांधी का समर्थन करते हैं और सोनिया गांधी यह चुनाव बड़े अंतराल से जीत जाती हैं और इसके बाद राजेश पायलट का राजनैतिक जीवन और भी हाशिये पर आ जाता है। इसी बीच 11 जून 2000 को राजेश पायलट की मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हो जाती है और गहलोत बनाम पायलट की लड़ाई कुछ समय तक के लिए रुक जाती है। सभी कोई लगता है कि राजस्थान कांग्रेस के दो मजबूत स्तम्भों के बीच की लड़ाई अब शायद हमेश के लिए शांत हो गई लेकिन किसी को नहीं मालूम था कि यह तो तूफान के आने से पहले की शांति भर थी।
राजेश पायलट के निधन से ठंडी पड़ गई थी जंग
राजेश पायलट की मृत्यु के बाद गहलोत बनाम पायलट की लड़ाई कई वर्षों तक ठंडी पड़ी रही। सन 2002 में राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट राजनीति में कदम रखते हैं और कांग्रेस पार्टी की सदस्यता लेते हैं। यह वह समय था जब कांग्रेस दोबारा से अपने पैरों पर कड़ी हो रही थी और पार्टी में राहुल गांधी का उदय हो रहा था। इस दौरान सचिन पायलट राहुल गांधी के नज़दीकी लोगों में शामिल हो जाते हैं। पार्ट उन्हें 2009 में अजमेर से लोकसभा का चुनाव लड़ाती है और वह जीतकर लोकसभा पहुंचते हैं। इसके बाद उन्हें साल 2012 मनमोहन सरकार में केन्द्रीय संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री बनाया जाता है।
इधर अशोक गहलोत 2008 में राजस्थान के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनते हैं लेकिन 2013 में राजस्थान में कांग्रेस की बुरी हार होती है और पार्टी विधानसभा के कुल 200 सीट में से केवल 21 सीट ही जीत पाती है। इसके बाद सचिन पायलट के राजस्थान कांग्रेस में अच्छे दिन आ जाते हैं। कांग्रेस हाईकमान अशोक गहलोत को दरकिनार करके सचिन पायलट को मौका देती है 2014 लोकसभा चुनाव में राजस्थान सहित पूरे देश में कांग्रेस की बुरी हार होती है। राजस्थान में कांग्रेस पार्टी एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत पाती है और इसके ठीक बाद गहलोत और पायलट परिवार के बीच में वर्षों से चली आ रही तनातनी एक नया रूप ले लेती है। दोनों नेता लोकसभा चुनावों में हार का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ते हैं और इसी दौरान साल 2017 में अशोक गहलोत को दिल्ली बुला लिया जाता है। इसके बाद लगता है कि अब राजस्थान कांग्रेस में सचिन पायलट की तूती बोलेगी।
2018 के चुनाव के बाद जंग हुई और भी तेज
सन 2018 में राजस्थान में फिर से विधानसभा के चुनाव हुए। पार्टी ने सचिन पायलट, जोकि प्रदेश कांग्रेस के मुखिया भी थे। उन्हें खुली छूट दे रखी थी। सचिन पायलट ने वसुंधरा राजे की सरकार पर जमकर हमला बोला और पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाया। टिकट बटवारे में भी सचिन पायलट की खूब चली। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस राजस्थान में भारी मतों से जीती और पहली बार 100 सीटों पे जीतने में कामयाब हुई। जब राजस्थान में जब मुख्यमंत्री बनाने की बात आई तो दिल्ली हाईकमान ने अशोक गेहलोत को मुख्यमंत्री नियुक्त किया। हाईकमान के इस फ़ैसले के बाद लगभग 2 दशक से शांत पायलट बनाम गहलोत के जंग का नगाड़ा बज गया। हालांकि पार्टी ने माहौल को क़ाबू में रखने के लिए सचिन पायलट को डिप्टी सीएम और प्रदेश प्रमुख बनाया, लेकिन 2019 के लोकसभा के चुनाव में भी पार्टी के बुरे प्रदर्शन ने सचिन पायलट की छवि को बड़ा धक्का पहुंचाया।
कोरोनाकाल में मरीज़ के साथ-साथ बढ़ा था राजस्थान का सियासी पारा
13 जुलाई 2020 को जब पूरा देश कोरोना के कारण ठंडा पड़ा हुआ था तभी राजस्थान कांग्रेस ने अचानक से तापमान बढ़ा दिया। सचिन पायलट अपने साथ करीबन डेढ़ दर्जन विधायक लेकर हरियाणा के मानेसर के एक होटल में पहुंच गए। इस घटनाक्रम में ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अशोक गहलोत की सरकार गिर जाएगी, क्योंकि इससे कुछ महीनों पहले ही मध्य प्रदेश में भी कुछ ऐसा ही प्रकरण हुआ था और कांग्रेस को अपनी सरकार गंवानी पड़ी थी। जहां एकतरफ़ सचिन पायलट कुछ विधायकों के साथ मानेसर में थे वहीं अशोक गेहलोत ने भी बाकि बचे हुए सभी विधायकों की बाड़ेबंदी शुरू कर दी। दोनों खेमे अपने अपने विधायकों को लेकर होटल में बंद थे। इसके साथ ही बीजेपी गहलोत सरकार पर हमलावर हुई और बहुमत साबित करने का दवाब बनाने लगी।
इस बीच कांग्रेस हाईकमान ने तुरंत एक्शन लेते हुए सचिन पायलट को मिलने के लिए बुलाया सचिन पायलट को मानाने की पूरी कोशिश तेज कर दी। इस दौरान राजस्थान के तमाम नेताओं का दिल्ली में जमावड़ा शुरू हो गया। तमाम कोशिशों के बाद भी जब सचिन पायलट नहीं माने तो उनके साथ दो मंत्रियो को हाईकमान के आदेश के बाद बर्खास्त कर दिया गया। इसी बीच प्रियंका गाँधी वाड्रा के दखल के बाद कुछ शर्तो के साथ सचिन पायलट को मना लिया गया। इससे राजस्थान पर आया सियासी संकट कुछ समय के लिए टल गया। लेकिन इसमें सचिन पायलट को अपना डिप्टी सीएम और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष का पद गँवाना पड़ा।
पिछले साल निकल सकता था समाधान, लेकिन…
इसके बाद पिछले साल हुए में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सोनिया गाँधी अशोक गहलोत को उम्मीदवार बनाना चाहती थीं। उसके दो फायदे होते। पहला गहलोत गाँधी परिवार के बेहद करीबी और विश्वासी थे तो पार्टी चलाने में गाँधी परिवार को ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होती। दूसरा राजस्थान में सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बना कर राजस्थान की समस्या को जड़ से ख़त्म कर दिया जाता। लेकिन ऐसा होता उससे पहले ही राजस्थान में बवाल हो गया। अशोक गहलोत गुट के 90 विधायक ने अपना त्यागपत्र राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष सी पी जोशी को दे दिया। बाग़ी विधायकों की मांग थी की अगर अशोक गेहलत को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो उनके ही गुट के किसी विधायक को मुख्यमंत्री बनाया जाये। सचिन पायलट का नेतृत्व उनको स्वीकार नहीं है। इस मामले को तूल पकड़ता देख कांग्रेस हाईकमान ने अशोक गेहलोत को मुख्यमंत्री पद पर बने रहने दिया। इधर सचिन पायलट की छटपटाहट बढ़ती जा रही थी और इसका नतीजा ये हुआ की चुनाव से ठीक पहले सचिन पायलट ने फिर से बगावती सुर अपना लिया है और अनके मुद्दों पर अपनी पार्टी की सरकार को घेर रहे हैं।
अब सचिन पायलट क्या फ़ैसल लेते हैं, इसका ज्ञान तो केवल गर्भ कि गोद में है लेकिन जानकर बता रहे हैं कि अगर इस बार कांग्रेस आलाकमान सचिन पायलट को उनके मनमुताबिक फ़ैसला नहीं देता है तो वह कांग्रेस छोड़ने का ऐलान भी कर सकते हैं। जयपुर में अनशन केवल और केवल पार्टी आलाकमान को अपनी शक्ति दिखाने का एक बहाना था। वह यह बताना चाह रहे हैं कि पार्टी अगर उन्हें नज़रअंदाज़ करती है तो वह अपनी राह अलग भी कर सकते हैं।