नई दिल्ली: राजपूत करणी सेना नाम का गुमनाम सा संगठन फिल्म पद्मावत के विरोध के चलते अचानक चर्चा के केंद्र में आ गया। इसके मुखिया लोकेंद्र सिंह कालवी भले ही इसके सामाजिक संगठन होने का दावा करते हैं, लेकिन यह उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम भी है जिसका जन्म राजपूत आरक्षण और भाजपा विरोध के तहत हुआ था। करणी सेना के गठन की नींव लगभग साढ़े 13 साल पहले पड़ी थी। उस समय लोकेंद्र सिंह कालवी ने भाजपा के बागी नेता देवी सिंह भाटी के साथ मिलकर सामाजिक न्याय मंच बनाया। पद्मावत फिल्म को लेकर डायरेक्टर संजय लीला भंसाली और ऐक्ट्रेस दीपिका पादुकोण को धमकी देने के बाद चर्चा में आए करणी सेना के मुखिया लोकेंद्र सिंह कालवी मध्य राजस्थान के नागौर जिले के कालवी गांव के रहने वाले हैं। वे अजमेर के मेयो कॉलेज में पढ़े हैं। मेयो कॉलेज तालीम के लिहाज़ से पूर्व राजपरिवारों का पसंदीदा स्थान रहा है। कालवी हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में सहजता से अपनी बात कहते हैं। कम लोग जानते होंगे कि वे बॉस्केटबॉल के अच्छे खिलाड़ी रहे हैं। इस राजपूत नेता की नज़र और हाथ शूटिंग के लिए बहुत मुफीद हैं।
उनके पिता कल्याण सिंह कालवी थोड़े-थोड़े वक्त के लिए राज्य और केंद्र में मंत्री रहे हैं। कल्याण सिंह कालवी चंद्रशेखर सरकार में मंत्री रहे थे और वह चंद्रशेखर के भरोसेमंद साथी भी थे इसलिए अपने पिता के असमय चले जाने के बाद लोकेन्द्र सिंह कालवी को पूर्व प्रधानमंत्री के समर्थकों ने हाथोहाथ लिया। खुद को किसान कहने वाले 67 वर्षीय लोकेंद्र नाथ ने राजनीति में सफलता पाने के कई प्रयास किए, लेकिन असफल ही रहे। 1993 में उन्होंने नागौर से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गए। इसके बाद 1998 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने बाड़मेर-जैसलमेर सीट से भाजपा के टिकट पर भाग्य आजमाया था, लेकिन फिर शिकस्त झेलनी पड़ी। उस वक्त वह जाति की राजनीति नहीं कर रहे थे।
वसुंधरा राजे से कालवी का हमेशा से 36 का आंकड़ा रहा है। राजे के राजस्थान के मुख्यमंत्री के पहले कार्यकाल के दौरान कई बार कालवी ने करणी सेना की रैलियां की और आरक्षण की मांग की। इसके तहत जयपुर में एक बड़ी सभा का आयोजन भी हुआ। लेकिन राजपूत नेताओं में बिखराव के चलते यह असफल हो गया। कालवी आरक्षण के मुद्दे पर राजपूतों को एक होने की मांग बुलंद करते रहे हैं।
जाटों को 1999 के दौर में आरक्षण का लाभ मिलने के बाद उन्होंने अपने समुदाय को कोटे के नाम पर एकजुट करने के प्रयास शुरू किए। देवी सिंह भाटी और वर्तमान में सर्व ब्राह्मण महासभा के अध्यक्ष सुरेश मिश्रा के साथ उन्होंने सोशल जस्टिस फ्रंट का गठन किया, जिसकी मांग थी कि उच्च वर्ग के गरीबों को भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। 2003 के विधानभा चुनाव में यह फ्रंट राजस्थान सामाजिक न्याय मंच के नाम से राजनीतिक पार्टी की शक्ल ले चुका था।
इस राजनीतिक दल के चुनाव में 60 उम्मीदवार थे। हालांकि पार्टी से सिर्फ एक उम्मीदवार देवी सिंह भाटी ही जीत सके। इसके बाद कालवी ने भाटी से अपनी राह अलग कर ली और वापस भाजपा में आ गए। 2006 में करणी सेना का गठन करने के बाद कालवी एक बार फिर से स्वयंभू नेता हो गए। 2008 में वह कांग्रेस से जुड़े, लेकिन टिकट न मिलने पर कुछ ही दिनों में छोड़ गए। राजपूत करणी सेना से भी उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हो सकीं, लेकिन राजूपत युवाओं में वह स्वर्णिम इतिहास को संजोने वाले रोल मॉडल जरूर बन गए।
बीकानेर जिले में स्थित देशनोक कस्बे के करणी माता मंदिर के नाम पर बने इस संगठन में अधिकतर 40 साल से कम आयु के युवा शामिल हैं। हालांकि उनके आलोचक कहते हैं कि वह राजस्थान में जातिवाद को प्रोत्साहित कर रहे हैं।