नयी दिल्ली: ट्रिपल तलाक़ के मामले में आज सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए एक बार में तलाक, तलाक़, तलाक़ कहकर तलाक लेने को असंवैधानिक क़रार दिया जिसे लेकर एक बार फिर भारतीय राजनीति गर्मा गई है। आपको याद दिला दें आज से 32 साल पहले भी इसी मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था जिसे लेकर राजनीतिक वबाल हुआ था और सरकार को संसद में इस फ़ैसले को बदलना पड़ा था। ये बात अलग है कि इस मामले का ताल्लुक़ तलाक़ के क़ानूनी या ग़ैर-क़ानूनी पक्ष से नहीं बल्कि गुज़ारे भत्ते से था लेकिन मौटे तौर पर ये लड़ाई मुस्लिम महिलाओं के हक़ के लिए थी जो शाहबानो ने लड़ी थी।
यूं लड़ी जंग शाहबानो ने
दरअसल इंदौर में रहने वाली शाहबानो के कानूनी तलाक भत्ते पर देशभर में राजनीतिक हमगामा मच गया था। राजीव गांधी सरकार ने एक साल के भीतर मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम, (1986) पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था।
इंदौर की रहने वाली मुस्लिम महिला शाहबानो को उसके पति मोहम्मद ख़ान ने 1978 में तलाक़ दे दिया था। 62 वर्षीय शाहबानो के पांच बच्चों की मां थी और तलाक़ के बाद गुज़ारा भत्ता पाने के लिए 1985 में कानूनी लड़ाई लड़ी थी। उच्चतम न्यायालय तक पहुँचते मामले को सात साल बीत चुके थे। न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय दिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो। न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाह बानो को निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाय।
लेकिन केस जीतने पर भी उन्हें हर्ज़ाना नहीं मिल सका था। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरज़ोर विरोध किया था। इस विरोध के बाद 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया जिसके तहत शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया था।
रूढ़िवादी मुसलमानों ने किया था विरोध
भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों के अनुसार यह निर्णय उनकी संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप था। इससे उन्हें असुरक्षित अनुभव हुआ और उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। उनके नेता और प्रवक्ता एम जे अकबर और सैयद शाहबुद्दीन थे। इन लोगों ने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की एक संस्था बनाई और सभी प्रमुख शहरों में आंदोलन की धमकी दी। उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनकी मांगें मान लीं और इसे "धर्म-निरपेक्षता" के उदाहरण के स्वरूप में प्रस्तुत किया।