नई दिल्ली। भारतीय राजनीति की नब्ज पर गहरी पकड़ रखने वाले प्रणव मुखर्जी को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाएगा, जो देश का प्रधानमंत्री हो सकता था, लेकिन अंतत: उनका राजनीतिक सफर राष्ट्रपति भवन तक पहुंच कर संपन्न हुआ। प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक जीवन में एक समय ऐसा भी आया था जब कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ते हुए वह इस शीर्ष पद के बहुत करीब पहुंच चुके थे लेकिन उनकी किस्मत में देश का प्रथम नागरिक बनना लिखा था।
साल 1982 में वे भारत के सबसे युवा वित्त मंत्री बने। तब वह 47 साल के थे। आगे चलकर उन्होंने विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त व वाणिज्य मंत्री के रूप में भी अपनी सेवाएं दीं। वे भारत के पहले ऐसे राष्ट्रपति थे जो इतने पदों को सुशोभित करते हुए इस शीर्ष संवैधानिक पद पर पहुंचे। मुखर्जी भारत के एकमात्र ऐसे नेता थे जो देश के प्रधानमंत्री पद पर न रहते हुए भी आठ वर्षों तक लोकसभा के नेता रहे। उनका राजनीतिक सफर बहुत भव्य रहा जो राष्ट्रपति भवन पहुंचकर संपन्न हुआ। लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना उन्हें नसीब नहीं हुआ । हालांकि उन्होंने खुलकर इस बारे में अपनी इच्छा व्यक्त कर दी थी।
अपनी किताब ‘‘द् कोअलिशन इयर्स’’ में मुखर्जी ने माना कि मई 2004 में जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था तब उन्होंने उम्मीद की थी कि वह पद उन्हें मिलेगा। उन्होंने लिखा है, ‘‘अंतत: उन्होंने (सोनिया) अपनी पसंद के रूप में डॉक्टर मनमोहन सिंह का नाम आगे किया और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। उस वक्त सभी को यही उम्मीद थी कि सोनिया गांधी के मना करने के बाद मैं ही प्रधानमंत्री के रूप में अगली पसंद बनूंगा।’’ मुखर्जी ने यह स्वीकार किया था कि शुरुआती दौर में उन्होंने अपने अधीन काम कर चुके मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में शामिल होने से मना कर दिया था लेकिन सोनिया गांधी के अनुरोध पर बाद में वह सहमत हुए।
सत्ता के गलियारों में रहने के बावजूद मुखर्जी कभी अपनी जड़ों को नहीं भूले। यही वजह थी कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी दुर्गा पूजा के समय वे अपने गांव जरूर जाया करते थे। मंत्री और राष्ट्रपति रहते पारंपरिक धोती पहने पूजा करते उनकी तस्वीरें अक्सर लोगों का ध्यान आकर्षित करती थीं। साल 2015 में उनकी पत्नी शुभ्रा मुखर्जी उनका साथ छोड़ गईं । प्रणव दा के परिवार में दो पुत्र और एक पुत्री हैं। मुखर्जी के राष्ट्रपति रहते उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के दौरान अक्सर उनके साथ दिखा करती थीं। उनके पुत्र अभिजीत मुखर्जी भी सांसद बने। हालांकि पिछले चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। पांच बार राज्यसभा और दो बार लोकसभा के सदस्य रहे मुखर्जी बतौर सांसद सबसे लंबी अवधि तक देश की सेवा करने वालों में शुमार थे। 1971 में बांग्ला कांग्रेस के कांग्रेस में विलय के बाद वे कांग्रेस संसदीय दल के सदस्य बने। वैसे तो उन्होंने सरकार में विभिन्न पदों को सुशोभित किया लेकिन साल 2004 में पहली बार उन्हें लोकसभा पहुंचने का सौभाग्य मिला। पश्चिम बंगाल की जंगीपुर संसदीय सीट से चुनाव जीतकर वे लोकसभा के सदस्य बने। हालांकि इससे पहले उन्हें दो बार लोकसभा चुनावों में हार का मुंह देखना पड़ा था। साल 1977 में मालदा और 1980 में बोलपुर संसदीय क्षेत्र से वे चुनाव हार गए थे।
आजादी के बाद के भारत के राजनीतिक इतिहास और शासन की गहरी जानकारी रखने वाले मुखर्जी भारत के विकास को आयाम देने वाले और इसमें बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाली एक प्रमुख शख्सियत थे। साल 2004 में हेनरी किसिंजर से हुई उनकी मुलाकात ने भारत और अमेरिका के बीच सामरिक समझौतों को एक नया आयाम दिया। साल 2005 में जब वे भारत के रक्षा मंत्री थे तब भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों के लिए एक नये मसौदे पर हस्ताक्षर हुए थे। साल 2004 से 2012 तक मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उन्होंने सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) और मेट्रो रेल परियोजना की स्थापना जैसे महत्वपूर्ण निर्णयों में अहम भूमिका निभाई।
राष्ट्रपति के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करने के एक साल बाद 2018 में मुखर्जी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर जाने और वहां समापन भाषण देने को लेकर खासा विवाद हुआ था। बाद में उन्हें भाजपा-नीत केंद्र सरकार द्वारा साल 2019 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘‘भारत रत्न’’ से नवाजा गया। इसे लेकर राजनीतिक हलकों में खूब चर्चा हुई। राष्ट्रपति के रूप में भी उन्होंने एक अमिट छाप छोड़ी। इस दौरान उन्होंने दया याचिकाओं पर सख्त रुख अपनाया। उनके सम्मुख 34 दया याचिकाएं आईं और इनमें से 30 को उन्होंने खारिज कर दिया। जनता के राष्ट्रपति के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुखर्जी को राष्ट्रपति भवन को जनता के निकट ले जाने के लिए उठाए गए कदमों के लिए भी याद किया जाएगा। उन्होंने जनता के लिए इसके द्वार खोले और एक संग्रहालय भी बनवाया। उनके निधन से देश ने इतिहास, अंतरराष्ट्रीय संबंधों और संसदीय प्रक्रियाओं में गहरी दिलचस्पी रखने वाला एक प्रखर बुद्धिजीवी खो दिया। इतना ही नहीं, उनके साथ ही भारत के विकास की कहानी और उसके अभ्युदय का दशकों तक गवाह रहा एक और प्रत्यक्षदर्शी हमारे बीच से चला गया।