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प्रणब मुखर्जी ने किया खुलासा, इस वजह से सीताराम केसरी ने गुजराल सरकार से वापस लिया था समर्थन

किताब के मुताबिक, "कांग्रेस ने समर्थन वापस क्यों लिया? केसरी के बार-बार 'मेरे पास समय नहीं है' दोहराने का क्या मतलब था। कई कांग्रेस नेताओं ने उनके प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा की ओर इशारा किया था।"

Edited by: IndiaTV Hindi Desk
Published : October 14, 2017 21:43 IST
Pranab Mukharjee
Image Source : PTI Pranab Mukharjee

नई दिल्ली: कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी ने वर्ष 1997 में संयुक्त मोर्चे की आई.के गुजराल सरकार से द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) को कैबिनेट से बाहर नहीं करने के फैसले के बाद समर्थन वापस ले लिया था लेकिन इसके पीछे प्रधानमंत्री बनने की उनकी अपनी महत्वाकांक्षा थी। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपने नवीनतम किताब में इस बात का उल्लेख किया है। किताब के मुताबिक, "कांग्रेस ने समर्थन वापस क्यों लिया? केसरी के बार-बार 'मेरे पास समय नहीं है' दोहराने का क्या मतलब था। कई कांग्रेस नेताओं ने उनके प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा की ओर इशारा किया था।"

मुखर्जी ने अपनी नवीनतम किताब 'गठबंधन वर्ष-1996-2012' में लिखा, "उन्होंने भाजपा-विरोधी लहर का लाभ उठाना चाहा और गैर-भाजपा सरकार का प्रमुख बनकर अपनी महत्वाकांक्षा को पाने का प्रयास किया।" राजीव गांधी हत्याकांड की जांच के लिए स्थापित जैन आयोग की रिपोर्ट आने के बाद संयुक्त मोर्चे की सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की गई थी।

जैन आयोग की अंतरिम रिपोर्ट से इस बात का पता चला था कि डीएमके और इसका नेतृत्व लिट्टे नेता वी.प्रभाकरन को प्रोत्साहन देने में संलिप्त था। रिपोर्ट में हालांकि राजीव गांधी की हत्या के संबंध में डीएमके के किसी भी नेता या किसी भी पार्टी का सीधे नाम नहीं था। संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए यह काफी संकटपूर्ण स्थिति थी क्योंकि डीएमके सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। वहीं कांग्रेस सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी।

मुखर्जी ने याद करते हुए किताब में उल्लेख किया है कि 1997 के शरद संसद सत्र में इस समस्या से निपटने के लिए काफी माथापच्ची की गई थी। गुजराल ने अपने अधिकारिक आवास पर केसरी, जितेंद्र प्रसाद, अर्जुन सिंह, शरद पवार और मुखर्जी जैसे नेताओं को रात्रि भोज पर बुलाया था। गुजराल ने कहा कि ऐसे वक्त पर अगर डीएमके पर कार्रवाई की जाएगी तो इसका गलत संदेश जाएगा। सरकार अपने सहयोगी पार्टियों के दबाव में दिखेगी। 

मुखर्जी ने अपनी किताब में लिखा, 'गुजराल इस बात पर सहमत थे कि सरकार की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आनी चाहिए। हमने उनसे कहा कि हम इस मुद्दे को कांग्रेस वर्किंग समिति (सीडब्ल्यूसी) के समक्ष रखेंगे जो अंतिम निर्णय लेगी।' किताब के अनुसार बड़ी संख्या में कांग्रेस नेता सरकार से तत्काल समर्थन वापस लेने के पक्ष में नहीं थे। इनमें से कई को डर था कि तत्काल चुनाव आने के बाद कई दोबारा सांसद नहीं बन पाएंगे। गुजराल भी शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों और वामपंथियों के बीच ही लोकप्रिय थे। 

उन्होंने लिखा, इन सब बातों के बीच कांग्रेस ने समर्थन वापस लेने और सीवीसी ने प्रधानमंत्री के डीएमके पर कार्रवाई न करने की स्थिति में समर्थन वापस लेने का फैसला किया। किताब के अनुसार ऊंचे इरादों वाले गुजराल डीएमके पर कार्रवाई न करने और कांग्रेस के इशारों पर नहीं नाचने के अपने रुख पर कायम रहे और सम्मान के साथ प्रधानमंत्री के पद से रूखसत हुए।

5 मार्च 1998 को सीताराम केसरी ने सीवीसी की बैठक बुलाई जिसमें जितेंद्र प्रसाद, शरद पवार और गुलाम नबी आजाद ने सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की पहल के लिए आग्रह किया। केसरी ने यह सुझाव ठुकरा दिया और मुखर्जी समेत अन्य नेताओं पर उनके खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप लगाए। वह बाद में बैठक छोड़कर चले गए। केसरी के जाने के बाद सीवीसी के सभी सदस्यों ने केसरी को उनके नेतृत्व के लिए धन्यवाद संबंधी और सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने के संबंध में प्रस्ताव पारित किया।

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