नई दिल्ली: रमजान के महीने में राजनीतिक पार्टियों की ओर से इफ्तार देने का सिलसिला आम होता था, लेकिन यह रिवायत अब थमती दिखती है क्योंकि सरकार और अहम सियासी दलों ने इफ्तार से दूरी बना ली है। सियासी इफ्तार का सिलसिला जवाहरलाल नेहरू के वक्त से चला आ रहा है। उनके बाद इस परंपरा को इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से लेकर वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह तक ने कमोबेश कायम रखा, लेकिन 2014 में केंद्र में सत्ता बदलने के बाद पहले प्रधानमंत्री और फिर अन्य दलों ने इफ्तार का आयोजन बंद कर दिया।
हाल ही में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इफ्तार नहीं देने का फैसला किया है। दिलचस्प है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की कुछ इकाइयों ने महाराष्ट्र में इफ्तार दावतों का आयोजन किया है। इस मुद्दे पर पेश हैं दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुफ्ती मुकर्रम अहमद से 5 सवालः
1. प्रधानमंत्री की ओर से इफ्तार नहीं दिया जा रहा है, अब राष्ट्रपति ने भी इफ्तार नहीं देने का फैसला किया है। इस पर आप क्या कहेंगे?
प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का इफ्तार देना सियासी कदम होता है। यह इफ्तार की तुलना में समाजी कार्यक्रम ज्यादा होता है। जहां तक बात रही उनके इफ्तार नहीं देने की तो देखिए, सियासत तो बदलती रहती है। उन्हें अभी लगता है कि यह माहौल इफ्तार देने का नहीं है तो वे नहीं दे रहे हैं। हो सकता है कि एक-दो साल बाद उनके सलाहकार उन्हें सलाह दें तो वह इफ्तार फिर से देने लगेंगे। इनका मतलब सियासी होता है, सबाब (पुण्य) कमाना नहीं होता है। इन्हें जब लगेगा कि इफ्तार देने की जरूरत है तब वे इफ्तार देने लगेंगे।
2. राजनीतिक दलों या उनके नेताओं की ओर से रखी जाने वाली इफ्तार की दावतों को आप कितना जायज मानते हैं?
वे अपने वोटों और समर्थकों और सियासी नफे-नुकसान को ध्यान में रखकर इफ्तार देते हैं। पहले बहुत से उलेमा ने फतवे भी दिए हैं कि राजनीतिक इफ्तार में नहीं जाना चाहिए क्योंकि उनका मकसद सबाब कमाना नहीं होता है, बल्कि सियासी होता है। बेहतर तो यही है कि सियासी पार्टियों की इफ्तार दावतों में नहीं जाना चाहिए क्योंकि यह सियासी मामले हैं।
3. इफ्तार क्या होता है और इसे कराने की फजीलत क्या है?
शाम के वक्त रोजेदार जब रोजा खोलते हैं, उसे इफ्तार कहते हैं। किसी रोजेदार को इफ्तार कराने का उतना ही सबाब है जितना रोजे रखने का। यह सबाब का काम है। भले ही आप इफ्तार में एक खजूर क्यों न खिलाएं, मगर अहम बात यह है कि यह इफ्तार जायज कमाई से दिया जाना चाहिए।
4. अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहने वाली राजनीतिक पार्टियों ने भी क्या इफ्तार का सियासी इस्तेमाल किया है?
सारी राजनीतिक पार्टियों का एक ही मामला है और कोई भी पार्टी अलग नहीं है। इन सब पार्टियों के अपने-अपने एजेंडे होते हैं और ये उसी पर काम करते हैं, और उसी हिसाब से यह इफ्तार देने या नहीं देने का फैसला करते हैं। उनका मकसद कभी भी मजहबी नहीं होता है। उनका एक ही मकसद होता है, वह है राजनीति। राजनीतिक पार्टियां इफ्तार का सियासी इस्तेमाल करती रही हैं। इसलिए आम मुसलमान पर इनके इफ्तार देने से या नहीं देने से कोई असर नहीं पड़ता है।
5. RSS और भाजपा की इकाइयां अलग-अलग जगहों पर इफ्तार दे रही हैं। क्या वे मुसलमानों को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं?
इन दलों के कुछ कार्यकर्ता मुसलमान भी हैं। इसके अलावा यह इफ्तार चुनाव देखकर दिए जाते हैं, कहां पर मुसलमानों की जरूरत है और कहां पर नहीं है, यह देखा जाता है। यह सिर्फ राजनीतिक एजेंडे के तहत होते हैं। ये इफ्तार दे या न दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये लोग कभी रूमाल गले में डाल लेते हैं तो कभी सिर पर टोपी पहन लेते हैं। यह सब नाटक है। इनके इफ्तार देने से कोई फर्क नहीं पड़ता है और आम मुसलमान इससे प्रभावित नहीं होते हैं। इन्हें सियासी नजर से देखा जाना चाहिए।