नई दिल्ली: 13 जून को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नई दिल्ली में इफ्तार पार्टी दी थी। उम्मीद की जा रही थी कि राहुल की इस पार्टी में 'संयुक्त विपक्ष' का ट्रेलर दिखेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सहयोगी पार्टियों के एक-दो नेताओं को छोड़ दिया जाए तो विपक्ष का कोई भी बड़ा चेहरा इस पार्टी में नजर नहीं आया। मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी से सीताराम येचुरी, झारखंड मुक्ति मोर्चा से हेमंत सोरेन, डीएमके की कनिमोझी और जनता दल युनाइटेड के निष्काषित नेता शरद यादव जरूर इस पार्टी में मौजूद रहे।
राहुल की इस इफ्तार पार्टी के बाद एक बार फिर से इस चर्चा ने जोर पकड़ लिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ ‘संयुक्त विपक्ष’ को खड़ा करना अभी दूर की कौड़ी ही नजर आ रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि सामने एक मजबूत प्रतिद्वंदी के होने के बावजूद विपक्ष एकजुट क्यों नहीं हो रहा है। क्या नेतृत्व का सवाल ‘संयुक्त विपक्ष’ की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन चुका है? क्या विपक्षी दल महागठबंधन के नेता के तौर पर राहुल गांधी को स्वीकार करने से हिचक रहे हैं?
कांग्रेस इस समय लोकसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और ऐसे में वह चाहेगी कि ‘संयुक्त विपक्ष’ की कमान उसके हाथों में रहे। वहीं, दूसरी तरफ कई क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपने-अपने राज्यों में इतने मजबूत हैं कि उन्हें अपने यहां चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस के सहारे की जरूरत नहीं है। इन राज्यों में कांग्रेस का कोई खास वजूद नहीं है और क्षेत्रीय पार्टियां उससे कहीं ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं। ऐसे बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्य शामिल हैं। इन राज्यों में उत्तर प्रदेश को छोड़ दिया जाए तो बाकी राज्यों में भाजपा भी बहुत मजबूत नहीं हो पाई है और क्षेत्रीय दलों को उससे बहुत ज्यादा खतरा नहीं है।
ऐसे में कांग्रेस को जहां इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों के आगे झुकना होगा, वहीं गठबंधन की हालत में क्षेत्रीय दलों को भी अपनी सीटों का कुछ हिस्सा कांग्रेस को देना पड़ सकता है। इसके अलावा केंद्र की राजनीति में आमतौर पर स्वतंत्र रूप से दखल रखने वाले इन दलों को कांग्रेस के नेतृत्व में काम करना पड़ सकता है, जो शायद इन्हें मंजूर न हो। यही वजह है कि इन पार्टियों ने एक गैर-भाजपाई और गैर-कांग्रेसी तीसरे मोर्चे का विकल्प भी खुला छोड़ा है। ऐसे में इन राज्यों के प्रमुख क्षेत्रीय दलों को अपने साथ ला पाना राहुल के लिए अभी भी टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक, तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और तमिलनाडु में करुणानिधि या पलानिसामी कभी नहीं चाहेंगे कि उनके झंडाबरदार राहुल गांधी हों। बस, यहीं आकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ ‘संयुक्त विपक्ष’ का फंडा दम तोड़ता हुआ नजर आता है। अब कांग्रेस और राहुल गांधी इस बड़ी चुनौती से कैसे निपटते हैं, और संभावित ‘संयुक्त विपक्ष’ अपना नेतृत्व किसे सौंपता है, इन्हीं कुछ सवालों का जवाब मिलने के बाद 2019 की चुनावी तस्वीर कुछ साफ हो सकेगी।