नई दिल्ली: बिहार विधानसभा चुनावों में शिवसेना कहीं नहीं है और उसको मिले कुल वोट एक प्रतिशत का 20वां हिस्सा है लेकिन इसके बावजूद शिवसेना कह रही है कि बिहार में अगर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनते हैं तो इसका श्रेय उन्हें जाएगा। बुधवार को आए शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' के संपादकीय में यह बात कही है। संपादकीय में लिखा है, पूरे देश की निगाहें बिहार विधानसभा चुनाव की ओर लगी हुई थीं। मतदान के पश्चात जो ‘एग्जिट’ पोल आदि दिखाए गए, उसमें आर-पार की लड़ाई होने की तस्वीर दिखी। नतीजे भी लगभग उसी तरह के आए। आर-पार की लड़ाई में ‘एनडीए’ अर्थात भाजपा-नीतीश कुमार गठबंधन को बढ़त मिली है। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ‘जद-यू’ को झटका लगा है। यह भी अपेक्षानुसार ही हुआ है। बिहार में फिर से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार आई है। लेकिन नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बनेंगे क्या? यह मामला अधर में है। नीतीश कुमार की संयुक्त जनता दल 50 सीटों का आंकड़ा भी नहीं छू पाई और भाजपा ने 40 का आंकड़ा पार किया।
संपादकीय में आगे लिखा गया है, नीतीश कुमार की पार्टी को कम सीटें मिलने के बावजूद वे ही मुख्यमंत्री बनेंगे, ऐसा अमित शाह को घोषणा करनी पड़ी थी। ऐसा ही वचन उन्होंने 2019 के चुनाव में शिवसेना को भी दिया था। उस वचन को नहीं निभाया गया और महाराष्ट्र में नया राजनीतिक महाभारत हुआ। अब कम सीटें मिलने के बावजूद नीतीश कुमार को दिया गया वचन पूरा किया गया तो इसका श्रेय शिवसेना को देना होगा। बिहार में क्या होगा, यह अगले 42 घंटों में साफ हो जाएगा। बिहार के चुनाव में ‘एनडीए’ ने बढ़त ले ली है लेकिन वहां की राजनीति में नए तेजस्वी पर्व की शुरुआत हो गई है। नया युवा तेजस्वी यादव का चेहरा उदित हुआ है। उसने प्रधानमंत्री मोदी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, अमित शाह, नड्डा और सारे सत्ताधीशों से अकेले लड़ाई लड़ी। तेजस्वी यादव ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को जोरदार चुनौती दी। बिहार चुनाव में मोदी का करिश्मा काम आया, ऐसा जिन्हें लग रहा होगा वे तेजस्वी यादव के साथ अन्याय कर रहे हैं। शुरुआत में एकतरफा लगनेवाली जीत मुकाबले वाली हो गई और वह सिर्फ तेजस्वी यादव की तूफानी प्रचार सभाओं के कारण ही हुआ। तेजस्वी ने एक महागठबंधन बनाया। उसमें कांग्रेस सहित वाम दल भी शामिल हुए। लेकिन कांग्रेस पार्टी की फिसलन का बड़ा झटका तेजस्वी यादव को लगा। वाम दलों ने कम सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद अच्छा प्रदर्शन किया। हालांकि, कांग्रेस वैसा नहीं कर पाई।
पार्टी ने कहा है, बिहार की राजनीति पिछले कई वर्षों से लालू यादव या नीतीश कुमार के आसपास ही घूमती रही, यह सच भले ही हो पर फिलहाल लालू यादव जेल में हैं और गत १५ सालों से सत्ता से बाहर हैं। राष्ट्रीय जनता दल के पोस्टर पर लालू यादव की तस्वीर भी नहीं थी। तेजस्वी यादव ही महागठबंधन का मुख्य चेहरा थे। तेजस्वी की सभाओं को प्रचंड प्रतिसाद मिला और सभाओं में गजब की जीवंतता देखने को मिली। इससे अनुमान लगाया जा रहा था कि तेजस्वी नतीजों में बाजी मार ले जाएंगे। मतदान के पश्चात भाजपा और जद-यू के खेमे में एक प्रकार से सन्नाटा पसर गया था। लड़ाई में हारते देख निराशा छा गई थी। लेकिन नतीजों के बाद निराश चेहरे खिल उठे। बिहार में नतीजे लोकतंत्र का रुझान हैं और उसे स्वीकार करना ही होगा। तेजस्वी यादव हार गए हैं, ऐसा हम मानने को तैयार नहीं। चुनाव हारना ही केवल पराभव नहीं होता और जुगाड़ करके आंकड़ा बढ़ाना जीत नहीं होती। तेजस्वी की लड़ाई एक बड़ा संघर्ष था। यह संघर्ष परिवार का था और उसी प्रकार सामने बलवान सत्ताधारियों से था।
संपादकीय में कहा गया है कि तेजस्वी को फंसाने और बदनाम करने का एक भी मौका दिल्ली और पटना के सत्ताधारियों ने नहीं छोड़ा। प्रधानमंत्री द्वारा ‘जंगलराज के युवराज’ आदि कहने के बावजूद तेजस्वी ने अपना संयम नहीं खोया और लोगों में जाकर प्रचार करते रहे। नीतीश कुमार को हार की इतनी चिंता हुई कि उन्हें भावनात्मक अपील करते हुए प्रचार के आखिरी चरण में कहना पड़ा कि यह उनका आखिरी चुनाव है। 15 साल बिहार पर एकछत्र राज करनेवाले नीतीश कुमार पर ऐसा समय तेजस्वी यादव के कारण आया क्योंकि इस युवा लड़के ने चुनाव प्रचार में विकास, रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे रखे, जो पहले गायब हो चुके थे। बिहार के चुनाव में रंग आ गया। उसमें रंग भरने का काम तेजस्वी यादव ने किया। प्रधानमंत्री मोदी जैसे बलवान नेताओं तथा बिहार के सत्ताधारियों की झुंडशाही के समक्ष तेजस्वी न रुके और न लड़खड़ाए। देश के राजनीतिक इतिहास में यह क्षण दर्ज किया जाएगा। बिहार का सत्ता संचालन किसी के हाथ में जाएगा ही। लेकिन बिहार के चुनाव ने देश की राजनीति में तेजस्वी नाम का चेहरा दिया है। उसकी लड़ाई का जितना अभिनंदन किया जाए उतना कम ही है।