लखनऊ: उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक भारतीय संविधान निर्माता बी.आर.आम्बेडकर के नाम को आधिकारिक तौर पर भीमराव रामजी आम्बेडकर किए जाने के फैसले के बाद शुरू हुए विवाद से बेफिक्र हैं, लेकिन उनका कहना है कि राजनीतिक दलों द्वारा इस पर विवाद पैदा किए जाने से उन्हें 'बहुत दुख' पहुंचा है।
नाईक ने आम्बेडकर के नाम बदलने के अपने प्रयासों के पीछे राजनीतिक उद्देश्य होने के सभी आरोपों को खारिज कर दिया है और कहा है कि दलित आइकन (आम्बेडकर) हमेशा से उनके हीरो रहे हैं। नाईक ने बताया कि आम्बेडकर ने खुद संविधान की मूल प्रतिलिपि पर 'भीमराव रामजी आम्बेडकर' के रूप में अपना हस्ताक्षर किया है। मूल प्रतिलिपि पर संविधान सभा के सभी सदस्यों, जिसमें सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद (जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने) और जवाहरलाल नेहरू के भी हस्ताक्षर हैं।
उन्होंने इस जानकारी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ साझा किया और उनसे आम्बेडकर के नाम में इस 'बड़ी त्रुटि' को ठीक करने का अनुरोध किया। नाईक ने कहा, "इसके लिए अधिनियम में संशोधन की जरूरत थी, लेकिन योगी आदित्यनाथ ने मुझे आश्वासन दिया कि उत्तर प्रदेश विधानसभा सत्र के दौरान इसमें संशोधन किया जाएगा।"
नाईक ने आश्चर्य जताया कि जब पिछले साल 29 दिसंबर को नए नाम के विधेयक को सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया था तो समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अब सवाल क्यों उठाया है? नाईक ने बताया कि इसके बाद लोगों और उनके समर्थकों को यह जानकारी देने के लिए कि दलित आइकन का सही नाम भीमराव रामजी आम्बेडकर है, उन्होंने बसपा प्रमुख मायावती और आम्बेडकर के पोते को पत्र लिखकर मदद मांगी थी।
नाईक ने कहा, "वर्ष 1950 के दशक से मैं दलित नेता का प्रशंसक रहा हूं, जब मैं नौकरी की तलाश में मुंबई गया था। मैंने विभिन्न सार्वजनिक रैलियों में उनके भाषणों को सुना था।" उन्होंने कहा, "बाबा साहब के लिए मेरे अंदर और यहां तक कि जनसंघ में भी हमेशा से ही आदर का भाव रहा है और यह दुख की बात है कि लोग इन चीजों में राजनीतिक उद्देश्य खोजते हैं, जिनके साथ इसका कोई लेना-देना नहीं है।"
नाईक ने कहा, "महात्मा गांधी की तरह आम्बेडकर भी राजनीति से काफी ऊपर थे और उनपर कोई भी समूह, राजनीतिक दल या कोई शख्स अपना अधिकार नहीं जता सकता है।" उन्होंने वर्ष 1989 की एक घटना का जिक्र किया, जब उन्होंने लोकसभा में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री के.पी. उन्नीकृष्णन से सवाल किया था कि क्या सरकार ने दलित आइकन की जयंती मनाने के लिए एक डाक टिकट जारी करने की योजना बनाई है।
उन्होंने कहा, "मुझे बताया गया कि केंद्र सरकार की ऐसी कोई योजना नहीं है।" पांच बार सांसद रहे और केंद्र में मंत्री रह चुके नाईक ने कहा कि मंत्री ने तब यह कहते हुए प्रतिक्रिया दी कि आम्बेडकर पर 15 पैसे और 20 पैसे का टिकट 14 अक्टूबर, 1966 और 14 अप्रैल, 1973 को जारी किए गए थे। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने न सिर्फ इस पहल पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया, बल्कि साथ ही वर्ष 1991 में आम्बेडकर पर एक डाक टिकट भी जारी किया। नाईक ने कहा कि इस टिकट पर भी उनका वास्तविक और पूरा नाम लिखा था।
यह पूछे जाने पर कि अचानक आम्बेडकर के नाम को बदलने का प्रयास क्यों शुरू हो गया? राज्यपाल ने कहा कि यह विचार आगरा में भीमराव आम्बेडकर विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा एक दीक्षांत समारोह के लिए मिले निमंत्रण के बाद आया। उन्होंने कहा, "मैंने उनसे कहा कि यह आम्बेडकरजी के नाम को लिखने का गलत तरीका है, जिस पर उन्होंने कहा, 'साहब, यहां ऐसे ही चलता है।"
नाईक ने बताया कि इसके बाद उन्होंने कई सरकारी दस्तावेजों पर बारीकी से निगाह डाली और संविधान की मूल प्रति का भी अवलोकन किया। उन्होंने कहा, "जिस चीज को भी परिवर्तन की जरूरत है, उसे मान्यता के आधार पर नहीं बदला जा सकता है और उसकी संवैधानिक मान्यता के लिए कानूनी समर्थन जरूरी है।" इस कदम से राज्य में एक नई राजनीतिक बहस शुरू हो गई है और बसपा ने आरोप लगाया है कि उनकी प्रदेश की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से मिलीभगत है, क्योंकि उनकी जड़ें भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ी हैं? राज्यपाल ने कहा, "संभवत: इन लोगों और पार्टियों को नहीं पता कि महाराष्ट्र के मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के साथ आम्बेडकर का नाम जोड़ने के लिए मैंने किस तरह 'सत्याग्रह' शुरू किया था और छह दिनों तक जेल में रहा था।"