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BLOG: ममता हैं कि मानती नहीं, केंद्र का टूट रहा है धैर्य

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई चल रही है। लेकिन यह लड़ाई राजनीतिक तौर पर लड़ी जाए तो बेहतर है। हत्या, आगजनी और हिंसा अगर राजनीतिक लड़ाई का हथियार बन जाए तो फिर यह लोकतंत्र पर संकट का संकेत है।

Written by: Niraj Kumar @nirajkavikumar1
Updated : June 10, 2019 19:54 IST
BLOG: ममता हैं कि मानती नहीं, केंद्र का टूट रहा है धैर्य
BLOG: ममता हैं कि मानती नहीं, केंद्र का टूट रहा है धैर्य

सहने की भी कोई सीमा होती है और धैर्य का भी कहीं अंत होता है। पश्चिम बंगाल में कमोबेश हालात ऐसे ही बनते जा रहे हैं कि केंद्र का धैर्य कभी-भी जवाब दे सकता है। दरअसल लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद ममता के खेमे में ऐसी हायतौबा मची है कि वो अपने खो रहे जनाधार को बचाने के लिए हर तरह का हथकंडा अपना रही हैं। इसी वजह से वहां के राजनीतिक पटल पर तेजी से उभरी बीजेपी के कार्यकर्ताओं को डराने की पूरी कोशिश की जा रही है। इस राजनीतिक टकराव की सबसे ज्यादा कीमत भी बीजेपी को चुकानी पड़ रही है। लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद ऐसी उम्मीद थी कि यह टकराव थमेगा लेकिन हालात और बिगड़ गए। चुनाव नतीजों के बाद राज्य में हिंसा और आगजनी की घटनाएं बढ़ गई हैं। पिछले दो दिनों में बीजेपी के तीन कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई जबकि कुछ कार्यकर्ताओं के लापता होने की सूचना है। बीजेपी ने अपने कार्यकर्ताओं की हत्या का आरोप तृणमूल कांग्रेस पर लगाया है। वहीं पश्चिम बंगाल की स्थानीय बीजेपी ईकाई की तरफ से लगातार राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग उठ रही है। हालांकि बीजेपी सैद्धांतिक रूप से हमेशा राष्ट्रपति शासन के खिलाफ रही है। इस बीच प्रदेश के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर राज्य के हालात से अवगत कराया है।

 
हालांकि टीएमसी के निशाने पर बीजेपी कार्यकर्ता पंचायत चुनाव के समय से ही रहे हैं। उसी समय से बीजेपी कार्यकर्ताओं को डराने-धमकाने और उनकी हत्या का सिलसिला शुरू हुआ था। राज्य में टीएमसी के बाहुबलियों का खौफ ऐसा था कि पंचायत चुनाव के दौरान कई जगह उम्मीदवारों को नामांकन दाखिल करने से रोका गया। कई उम्मीदवार पंचायत चुनाव में जीत हासिल करने के बाद भी अपने क्षेत्र में नहीं जा सके। यह मामला कोलकाता हाईकोर्ट में भी गया और कोर्ट की टिप्पणी राज्य सरकार के लिए किसी तमाचे से कम नहीं है। लेकिन इसके बाद भी ममता पर कोई फर्क नहीं पड़ा। ममता बनर्जी का रवैया बेहद गैर-जिम्मेदाराना रहा है।
 
हद तो तब हो गई जब फनि तूफान की आहट मिलते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सभी प्रभावित राज्यों से बात कर रहे थे। ममता बनर्जी ने देश के प्रधानमंत्री से बात करने से साफ इनकार कर दिया। ममता के इस रवैये को हलके में नहीं लेना चाहिए। यह बेहद गंभीर मामला था। उस समय देश में चुनावी माहौल था इसलिए हो सकता है कि ममता के इस रवैये को गंभीरता से नहीं लिया गया। लेकिन इस तरह के रवैये से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे चलेगी? अगर मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री से बात करने से इनकार कर दे तो क्या यह संवैधानिक मर्यादाओं की तौहीन नहीं है? राजनीतिक विरोध अपनी जगह है लेकिन जब भी जनहित की बात आती है तो उस मोर्चे पर तो हमें एक होकर काम करना पड़ेगा तभी देश की तरक्की होगी। लेकिन ममता हैं कि मानती ही नहीं। क्या ऐसे मुख्यमंत्री को अपने पद पर बने रहने का हक है?
 
पिछले दिनों जिस तरह से हिंसक घटनाओं में बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या की गई उससे राज्य में कानून-व्यवस्था की गंभीर स्थिति की पता चलता है। ऐसा लगता है जैसे ममता राज्य में कानून-व्यवस्था को संभाल पाने में पूरी तरह से विफल रही हैं। टीएमसी और राज्य सरकार के रवैये से केंद्र सरकार की सहनशीलता और धैर्य पर लगातार प्रहार हो रहा है। यह धैर्य कब टूट जाए कहना मुश्किल है।
 
अगर केंद्र सरकार राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर भी दे (हालांकि अभी इसके कोई आसार नहीं है) तो हालात में बहुत ज्यादा बदलाव की सूरत नजर नहीं आती। हां, ये जरूर हो सकता है कि केन्द्र संविधान की धारा 355 के तहत राज्य सरकार को शान्ति बनाये रखने के लिए निर्देश भेजे। इससे बीजेपी कार्यकर्ताओं की लगातार हो रही हत्या की घटनाएं रूक सकती हैं। ऐसा लगता है कि ममता यह चाहती भी हैं कि केंद्र कुछ ऐसा कदम उठाए जिससे वे जनता के बीच जाकर अपने प्रति सहानुभूति बटोर सकें। क्योंकि आनेवाले विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के पास कोई ऐसा रिपोर्ट कार्ड नहीं है जिसके दम पर वह लोगों से एकबार फिर टीएमसी को सत्ता में लाने की अपील कर सकें। इसलिए वह ऐसी हालत बनने देना चाहती हैं कि केंद्र राष्ट्रपति शासन जैसे आपातकालीन कदम उठाए और वे इस फैसले को अपने हक में भुना सकें। कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल में राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई चल रही है। लेकिन यह लड़ाई राजनीतिक तौर पर लड़ी जाए तो बेहतर है। हत्या, आगजनी और हिंसा अगर राजनीतिक लड़ाई का हथियार बन जाए तो फिर यह लोकतंत्र पर संकट का संकेत है।

(इस ब्लॉग में व्यक्त लेखक के निजी विचार हैं)

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