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Blog: यूपी में 'हाथ' को भी बुआ-बबुआ का साथ पसंद नहीं

कांग्रेस आलाकमान भले ही एसपी-बीएसपी से गठजोड़ को लेकर उत्सुकता बनाए हुए है, पर कार्यकर्ता आने वाले लोकसभा चुनाव में साइकिल और हाथी से गठजोड़ नहीं चाहते हैं।

Written by: Shivaji Rai
Updated : January 09, 2019 12:57 IST
Blog by Shivaji Rai : यूपी में 'हाथ' को भी बुआ-बबुआ का साथ पसंद नहीं
यूपी में 'हाथ' को भी बुआ-बबुआ का साथ पसंद नहीं

'यूपी को ये साथ पसंद है' के नारे को पिछले विधानसभा चुनाव में यूपी की जनता ने नापसंद कर दिया। मौजूदा दौर में यूपी में गठबंधन की जो तस्‍वीर उभर रही है उसमें भी हाथी और साइकिल से दूर जाता दिख रहा है हाथ। कांग्रेस आलाकमान भले ही एसपी-बीएसपी से गठजोड़ को लेकर उत्‍सुकता बनाए हुए है, पर सूबे के कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता आने वाले लोकसभा चुनाव में साइकिल और हाथी से गठजोड़ नहीं चाहते हैं। कांग्रेस के सूत्रों की मानें तो सूबे के नेताओं ने आलाकमान तक अपनी बात भी पहुंचा दी है, साथ ही मौजूदा समीकरण में नफा-नुकसान को भी आलाकमान के सामने रख दिया है।

यूपी में कांग्रेस कार्यकर्ता तीन राज्‍यों के विधानसभा चुनाव में मिली बड़ी जीत की वजह से उत्साह से लबरेज हैं। दूसरी तरफ खबर आ रही है कि यूपी के लिए बन रहे गठबंधन में एसपी, बीएसपी और आरएलडी कांग्रेस को किनारे लगाने की जुगत में हैं, हालांकि अभी तक इसकी कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है। फिर स्‍थानीय कांग्रेस नेतृत्‍व इस बात को भलीभांति समझता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में एसपी, बीएसपी और आरएलडी के गठबंधन में कांग्रेस को येन-केन-प्रकारेण जगह मिल भी जाए तो भी कांग्रेस को बमुश्किल 2-5 सीटें ही मिल सकती हैं। सीटों की संख्या पर पहले भी खबरें आ चुकी हैं कि एसपी-बीएसपी सिर्फ अमेठी और रायबरेली, जो कांग्रेस की परंपरागत लोकसभा सीटें हैं, उन्हें ही देने का मन बना चुकी हैं। ऐसे में कम सीटों पर गठबंधन होना न सिर्फ कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब है बल्कि उसके कार्यकर्ताओं को भी हताशा की ओर ढकेल सकती है। जिलाध्‍यक्षों समेत कई राज्‍य स्‍तर पदाधिकारियों ने चिट्ठी के जरिए आलाकमान के सामने गठबंधन से दूर रहने की बात रखी है।

गौरतलब है कि दिवंगत एनडी तिवारी के मुख्‍यमंत्रित्‍व काल के बाद से कांग्रेस यूपी की सत्‍ता से बाहर है। साल 1989 के बाद से ही कांग्रेस यूपी में अपनी सियासी जमीन तलाशने की कोशिश कर रही है। हालांकि इसमें उसे अभी तक आंशिक सफलता भी नहीं मिल सकी है। करीब 3 दशकों से यूपी में एसपी, बीएसपी और बीजेपी ही सत्‍तासीन रही हैं। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने एसपी के साथ गठजोड़ किया लेकिन असफलता ही हाथ लगी। सूबे के कांग्रेस नेताओं का मानना है आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी के लिए यही बेहतर होगा कि वह बिना बैशाखी के अकेले चुनाव लड़े। उनका तर्क है कि अगर कांग्रेस राज्‍य की सभी 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारती है तो यह उसके लिए प्लस प्वाइंट होगा। पहला, अगर कांग्रेस गिनती के भी सीटों पर जीत हासिल करती है तो भी चुनाव के बाद बनने वाले संभावित गठबंधन में उसका दबदबा मजबूत होगा। दूसरी तरफ कांग्रेस अगर अकेले चुनाव लड़ेगी तो वर्षों से इंतजार कर रहे उन कार्यकर्ताओं को भी मौका मिलेगा जो वैचारिक तौर पर पार्टी के प्रति निष्ठावान हैं और उसी निष्‍ठा की वजह से बिना लाभ वर्षों से पार्टी में बने हुए हैं।

आंकड़े भी इस तर्क को मजबूती देते हैं। पिछले आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो यह साफ है कि कांग्रेस जब-जब अकेले चुनाव लड़ी तो वह उसके लिए सीटों के मायने में कहीं न कहीं सुखद ही रहा। साल 2007 में जहां कांग्रेस को यूपी के विधानसभा चुनाव में 22 सीटें मिली थीं, वही साल 2012 के चुनाव में 29 सीटें हासिल हुई थीं, लेकिन साल 2017 के विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस और सपा ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा, वहां कांग्रेस सिर्फ 7 सीटों पर सिमट गई। बात अगर लोकसभा चुनाव की ही करें तो साल 2004 के चुनाव में कांग्रेस को यूपी से 14 लोकसभा सीटें मिली थीं। साल 2009 के चुनाव में अकेले लड़ने के फैसले के बाद कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस 80 में से निर्णायक सीटें न भी हासिल कर पाए, एकाध सीट ही अपनी झोली में डाल पाए तो भी इसे उसकी जीत ही मानी जाएगी और उसका दूरगामी फायदा यह होगा कि साल 2022 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में उसे खुद को पुनर्जिवित करने का मौका मिल सकता है।

2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सिर्फ 7 सीटों पर सिमटने की मुख्य वजह यह मानी गई की पार्टी कार्यकर्ताओं में इस बात की नाराजगी थी कि 4 साल तक जिस समाजवादी सरकार का विरोध करते रहे अब उसी का झंडा कौन उठाए? उस वक्‍त भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने आलाकमान तक अपनी बात पहुंचाई थी लेकिन उसे नजरअंदाज कर दिया गया। कांग्रेस के एक बड़े नेता का कहना है कि राज्‍य की जिन सीटों पर हम कभी रनर अप रहते थे, वहां की सीटें भी महागठबंधन को दे दी जाती हैं, जिसके चलते कार्यकर्ता हताश होता है। चुनावी पंडित भी इस बात को स्‍वीकारते हैं कि यूपी की कई सीटों पर कांग्रेस निर्णायक स्थिति में होती है लेकिन गठबंधन की दशा में उसके वोटर भी किसी अन्य दल को वोट न कर कथित तौर पर जीत रही पार्टी को वोट करता है जिससे पार्टी और गठबंधन दोनों प्रभावित होता है। 

सूबे के नेता और कार्यकर्ता इस बात को लेकर प्रतिबद्ध है कि अगर पार्टी को यूपी में लोकसभा चुनाव के आगे की भी लड़ाई लड़नी है तो भी उसे मैदान में अकेले उतरना होगाकैडर की बात सुनना होगा, अन्यथा कार्यकर्ताओं में हताश आएगी, जो किसी भी तरह से पार्टी के हित में नहीं है। आखिरकार कांग्रेस का कार्यकर्ता कब तक विरोधी दलों का झंडाबरदार बना रहेगा?

(ब्लॉग के लेखक शिवाजी राय पत्रकार हैं और इंडिया टीवी में कार्यरत हैं। ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं)

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