बिहार में जातिगत विषमताओं की संरचना भी काफी पेचीदा है। बिहार की जनता के बारे में एक जुमला काफी लोकप्रिय है कि बिहारी जनता चुनाव के लिए मतदान नहीं करती, बल्कि जाति के लिए मतदान करती है।
लोगों का एक बड़ा तबका मानता है कि आजादी के बाद बीस वर्षों तक सर्वणों ने राज किया और पहले सीएम के रुप में श्रीकृष्ण सिंह काबिज हुए जोकि भूमिहार थे। 2 अप्रैल 1946 से लेकर 31 जनवरी 1961 तक भूमिहार युग के बाद भूमिहार फिर कभी सत्ता के शिखर को हासिल नहीं कर सके। पारंपरिक रूप से एक-दूसरे के विरोधी भूमिहार और राजपूतों ने सुविधानुसार सत्तापान किया। श्रीकृष्ण सिंह के समय ही अनुग्रह नारायण सिंह (राजपूत) बिहार के पहले उपमुख्यमंत्री बने थे।
भूमिहार और राजपूतों के बाद बारी ब्राह्म्णों की आई जिनका प्रतिनिधित्व विनोदानंद झा ने किया। वे करीब ढाई वर्षों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे। फ़िर बारी आई कायस्थों की जो चल-अचल संपत्ति के मामले में तो अन्य सवर्णों से कमतर लेकिन बौद्धिक रूप से उनसे बहुत आगे थे।
भूमिहारों-राजपूतों और ब्राह्म्णों को सत्ता से दूर करने में दलितों और पिछड़ों की बड़ी भागीदारी थी। कर्पूरी ठाकुर दलित और पिछड़े समाज की आवाज़ बन रहे थे। और धीरे-धीरे बिहार में सत्ता की कहानी जो भूमिहारों से शुरू हुई थी, वह राजपूत, ब्राह्म्ण, कायस्थ और पिछड़ों के बाद दलितों के हाथ में जा चुकी थी। बिहार में जातिगत सत्ता-स्थानांतरण की मुख्य वजह थी दलितों और पिछड़ों में राजनीतिक जागरूकता और सत्ताहीन सवर्णों की छटपटाहट। यहीं से बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर भी शुरू हो गया था।
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