नयी दिल्ली: बिहार विधान सभा चुनाव किसी लोकसभा चुनाव से कम नहीं रहा। भारतीय जनता पार्टी ने बिहार विधान सभा चुनाव की शुरुआत विकास और परिवर्तन के मुद्दे के साथ की थी लेकिन बहुत जल्द इस मुद्दे पर अन्य कई ऐसे मुद्दे हावी हो गए जिनका सरोकार न जनता से था और न ही राज्य के विकास से।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के लिए एक लाख 65 हज़ार करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज की घोषणा के साथ ही चुनाव बिगुल फ़ूंका था। इस घोषणा के साथ ही तय हो गया था कि चुनाव की रणभूमि में विकास की बिसात पर ही मोहरे आगे-पीछे किए जाएंगे।
लेकिन मोदी-अमित शाह ने अभी ठीक से कमर कसी भी न थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर ये बयान देकर बिहार में चुनाव का सीन ही बदल दिया कि आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिये।
भागवत के इस बयान से अब तक ‘अवसर के गठबंधन’ के आरोपों की मार झेल रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को माने नयी ऊर्जा मिल गई और अचानक उनके प्रचार में वो धार नज़र आनी लगी जो अब तक कमज़ोर दिख रही थी।
वैसे आपको बता दें कि लालू पिछले ढेड़ साल से मंडल-2 की बात कर रहे थे और ग्रामीण इलाक़ों में इसका ज़ोरदार प्रचार भी कर रहे थे। भागवत के इस बयान ने लालू-नीतीश के मंडल-2 को एक नयी ताक़त दे दी।
इस दौरान आरक्षण पर भागवत के बयान पर लंबे समय तक मोदी की ख़ामोशी भी बीजेपी को भारी पड़ी। मोदी आख़िरकार बोले ज़रुर लेकिन तब तक समाज का वह तबका लामबंद हो चुका था जिसके लिये संविधान में आरक्षण का प्रवाधान है।
इस बीच दादरी में गो-मांस पर एक मुसलमान की हत्या ने भी बिहार में मुसलमानों को लालू-नीतीश के और क़रीब ला खड़ा किया। यहां भी मोदी की ख़ामोशी से बीजेपी को नुकसान ही हुआ।
इसके अलावा मुजफ्फरपुर परिवर्तन रैली में पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा नीतीश कुमार के डीएनए पर उठाया गये गये सवाल ने भी बीजोपी की मुश्किलें बढ़ा दी। लालू-नीतिश और कांग्रेस के एक साथ आ जाने से मुक़ाबला दो पार्टियों के बीच हो गया और ज़ाहिर है दलित-पिछड़े वर्ग और मुसलमान ने इस महागबंधन को एक नये सिरे से वो ताक़त दे दी जिसके सामने बीजेपी का टिकना अगर मुस्किल नहीं तो आसान भी नहीं था। अब तक देश में हुए चुनाव से एक बात स्पष्ट रुप से उभरी रही है कि बीजेपी को तभी फ़ायदा होता है जब मुक़ाबला बहु-कोणीय हो।