Friday, November 22, 2024
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'शादी के बाद पति संबंध नहीं बनाता है', पत्नी ने दी अर्जी तो कर्नाटक हाईकोर्ट ने सुनाया ये बड़ा फैसला..

पत्नी ने पति पर आरोप लगाया था कि वह शादी के बाद शारीरिक संबंध नहीं बनाता। इसपर कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि यह हिंदू विवाह अधिनियम के तहत क्रूरता है लेकिन आईपीसी के तहत नहीं।

Edited By: Kajal Kumari
Updated on: June 20, 2023 13:08 IST
karnataka high court decision- India TV Hindi
Image Source : FILE PHOTO पत्नी की अर्जी पर कर्नाटक हाईकोर्ट का बड़ा बयान

कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक हालिया फैसले में कहा, एक पति द्वारा शारीरिक संबंध से इनकार करना हिंदू विवाह अधिनियम -1955 के तहत क्रूरता है, लेकिन आईपीसी की धारा 498ए के तहत नहीं। कोर्ट ने साल 2020 में पत्नी के द्वारा एक व्यक्ति और उसके माता-पिता के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले में कार्यवाही को रद्द कर दिया। पति ने अपने और अपने माता-पिता के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 4 के तहत दायर चार्जशीट को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय का रुख किया था।

पति ने कहा था-प्यार भौतिक नहीं होता

न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना ने कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ एकमात्र आरोप यह था कि वह एक निश्चित आध्यात्मिक आदेश का अनुयायी था और उसका मानना ​​था कि "प्यार कभी भी भौतिक नहीं होता, यह आत्मा से आत्मा का होना चाहिए"।

अदालत ने कहा कि उसका "अपनी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने का कभी इरादा नहीं था", जो "निस्संदेह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12 (1) (ए) के तहत विवाह न करने के कारण क्रूरता की श्रेणी में आएगा।" लेकिन यह कानून की धारा 498ए के तहत परिभाषित क्रूरता के दायरे में नहीं आता है।

पत्नी ने लगाया था आरोप

बता दें कि इस कपल ने 18 दिसंबर 2019 को शादी की थी, लेकिन पत्नी सिर्फ 28 दिन ससुराल में ही रही। उसने 5 फरवरी, 2020 को धारा 498ए और दहेज अधिनियम के तहत पुलिस शिकायत दर्ज की। उसने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 12 (1) (ए) के तहत पारिवारिक अदालत के समक्ष एक मामला भी दायर किया, जिसमें क्रूरता के आधार पर विवाह को रद्द करने की मांग की गई, जिसमें कहा गया कि विवाह संपन्न नहीं हुआ था। जबकि 16 नवंबर, 2022 को शादी रद्द कर दी गई थी। पत्नी ने आपराधिक मामले को आगे बढ़ाने का फैसला किया।

कोर्ट ने कहा कि आपराधिक कार्यवाही को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती है अन्यथा यह "कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग और न्याय के लिए तर्कसंगत नहीं होगा।"

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