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झारखंड के इस गांव में पत्थरों की बारिश में मनाई जाती है अनूठी होली, मुस्लिम भी होते हैं शामिल

मान्यता यह है कि कि जो लोग पत्थरों से चोट खाने का डर छोड़कर खूंटा उखाड़ने बढ़ते हैं, उन्हें सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है। ये लोग सत्य के मार्ग पर चलने वाले माने जाते हैं।

Edited By: Malaika Imam @MalaikaImam1
Updated on: March 07, 2023 13:58 IST
सालों पुरानी परंपरा के अनुसार मनाई जाती है होली - India TV Hindi
Image Source : IANS सालों पुरानी परंपरा के अनुसार मनाई जाती है होली

होलिका दहन के साथ ही झारखंड में भी पूरा माहौल होलीमय हो गया है, लेकिन लोहरदगा जिला अंतर्गत बरही चटकपुर गांव में सालों पुरानी परंपरा के अनुसार ऐसी होली मनाई जा रही है, जिसकी चर्चा अब दूर-दूर तक होती है। सालों से चली आ रही परंपरा के मुताबिक, गांव के मैदान में गाड़े गए एक विशेष खंभे को छूने-उखाड़ने की होड़ के बीच मिट्टी के ढेलों की बारिश की जाती है। 

गांव के पुजारी मैदान में खंभा गाड़ देते हैं 

परंपरा यह है कि होलिका दहन के दिन पूजा के बाद गांव के पुजारी मैदान में खंभा गाड़ देते हैं और अगले दिन इसे उखाड़ने और पत्थर (ढेला) मारने के उपक्रम में भाग लेने के लिए गांव के तमाम लोग इकट्ठा होते हैं। मान्यता यह है कि कि जो लोग पत्थरों से चोट खाने का डर छोड़कर खूंटा उखाड़ने बढ़ते हैं, उन्हें सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है। ये लोग सत्य के मार्ग पर चलने वाले माने जाते हैं।

आज तक कोई गंभीर रूप से जख्मी नहीं हुआ

गांव के लोगों को कहना है कि इस पत्थर मार होली में आज तक कोई गंभीर रूप से जख्मी नहीं हुआ। खास बात यह है कि इस खेल में गांव के मुस्लिम भी भाग लेते हैं। अब ढेला मार होली को देखने के लिए दूसरे जिलों के लोग भी बड़ी संख्या में पहुंचने लगे हैं। खूंटा उखाड़ने और ढेला फेंकने की इस परंपरा के पीछे कोई रंजिश नहीं होती, बल्कि लोग खेल की तरह भाईचारा की भावना के साथ इस परंपरा का निर्वाह करते हैं।

आस-पास के जिले से बड़ी संख्या में जमा होते हैं लोग 

लोहरदगा के एक बुजुर्ग मनोरंजन प्रसाद बताते हैं कि बीते कुछ वर्षों में बरही चटकपुर की इस होली को देखने के लिए लोहरदगा के अलावा आस-पास के जिले से बड़ी संख्या में लोग जमा होते हैं, लेकिन इसमें सिर्फ इसी गांव के लोगों को भागीदारी की इजाजत होती है। यह परंपरा सैकड़ों वर्षो से चली आ रही है।

गांव के तमाम लोग इस खेल का हिस्सा बन गए

वह बताते हैं कि इस परंपरा की शुरुआत होली पर गांव आने वाले दामादों से चुहलबाजी के तौर पर शुरू हुई थी। गांव के लोग दामादों को खंभा उखाड़ने को कहते थे और मजाक के तौर पर उन पर ढेला फेंका जाता था। बाद में गांव के तमाम लोग इस खेल का हिस्सा बन गए।

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