नीतीश कुमार ने गुरुवार को फिर बेहूदा हरकत की, फिर अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल किया, फिर गालियां दी। दो दिन पहले नीतीश ने विधानसभा में महिलाओं का अपमान किया था। गुरुवार को विधानसभा में एक सीनियर महादलित नेता को अनाप-शनाप बोला, मुख्यमंत्री तू-तड़ाक पर उतर आए। पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को पागल, सेंसलेस, न जाने क्या-क्या कह दिया। नीतीश कुमार का जो रूप पिछले दो दिनों में दिखा, उसकी उम्मीद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे किसी शख्स से कोई नहीं कर सकता। नीतीश ने विधानसभा में जीतनराम मांझी से कहा कि इसको मैंने चीफ मिनिस्टर बनाया, ये मेरी मूर्खता थी, ये मेरी गधा-पचीसी थी, जो इसको चीफ मिनिस्टर बना दिया, अब ये बीजेपी के पीछे भाग रहा है, गवर्नर बनना चाहता है, इसको कुछ पता भी है, इसको कुछ सेंस भी है, कुछ भी बोलता रहता है। सोचिए, ये वही अल्फाज़ हैं, जो नीतीश कुमार ने एक मुख्यमंत्री की हैसियत से विधानसभा में एक पूर्व मुख्यमंत्री के लिए कहे। नीतीश का ये रूप देखकर अध्यक्ष से लेकर सदन में मौजूद सभी विधायक, दर्शक दीर्घा में बैठे आम लोग, प्रेस गैलरी में बैठे रिपोर्टर्स के साथ साथ जेडी-यू और RJD के लोग भी हैरान थे। अध्यक्ष ने टोका, नीतीश के बगल में बैठे संसदीय कार्यमंत्री विजय चौधरी ने हाथ पकड़ पकड़कर बैठाने की कोशिश की लेकिन नीतीश कुमार बोलते गए। एक बार नहीं, बार-बार। करीब तीन मिनट तक नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को बुरा-भला कहा। मांझी ने समझदारी दिखाई, बड़प्पन दिखाया, कुछ नहीं बोले, खामोश रहे, लेकिन नीतीश पर कोई फर्क नहीं पड़ा। जब बीजेपी के नेताओं ने इसका विरोध किया तो नीतीश ने एक बार फिर वही बातें दोहरा दी। इसके बाद भारी हंगामा हुआ। सदन की कार्यवाही हंगामे के बीच चलती रही। सरकारी बिल भी पास हो गए। लेकिन नीतीश की बयानबाज़ी फिर मुद्दा बन गई।
बीजेपी ने महादलित के अपमान को बड़ा मुद्दा बना दिया। नीतीश कुमार की बदतमीज़ी से पहले सबसे बड़ी खबर ये थी कि गुरुवार को बिहार विधानसभा ने नौकरियों में, कॉलेज और अन्य शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का कोटा 50 परसेंट से बढ़ाकर 65 परसेंट करने का प्रस्ताव पास कर दिया। अब आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के 10 परसेंट रिजर्वेशन को मिलाकर, बिहार में 75 परसेंट आरक्षण होगा। इस बिल का किसी पार्टी ने विरोध नहीं किया। RJD और JD-U के विधायक आरक्षण की लिमिट बढ़ाए जाने से उत्साह में थे। इसी विधेयक पर चर्चा हो रही थी। इसी दौरान बहस में मांझी बोलने के लिए खड़े हुए। कुल डेढ़ मिनट बोल पाए। मांझी ने बहुत शालीनता से अपनी बात कही। कहा, हुज़ूर उन्हें लगता है कि जातिगत जनगणना में सिर्फ काग़ज़ी काम हुआ है, इसलिए जिन्हें वास्तव में आरक्षण की जरूरत है, उन्हें इन आंकड़ों से न्याय नहीं मिलेगा, कोई फ़ायदा नहीं होगा। मांझी ने कहा कि हर दस साल में आरक्षण की समीक्षा कराने का प्रावधान है, सरकार को ये पता लगाना चाहिए कि जिन वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है, क्या वाकई में उनको आरक्षण का फायदा मिल रहा है? सरकार ने अब तक ये नहीं किया, इसलिए सिर्फ आरक्षण की सीमा बढ़ाने से कुछ नहीं होगा। बस, मांझी इतना बोल पाए थे, इसी दौरान नीतीश कुमार खड़े हुए और मांझी को गालियां देना शुरू कर दिया। नीतीश का अंदाज बहुत शर्मनाक, अशोभनीय, अमर्यादित था, मुख्यमंत्री के पद की गरिमा के खिलाफ था। नीतीश ने सिर्फ जीतनराम मांझी को बेइज्जत नहीं किया, उन्होंने अध्यक्ष और विधानसभा को भी अपमानित किया, अपने पद को कलंकित किया। नीतीश कुमार इस अंदाज़ में बोल रहे थे मानो पुराने ज़माने में साहूकार गरीब और छोटी जाति के लोगों को अपमानित करते थे, उन्हें अपना गुलाम समझते थे।
नीतीश के इस रुख पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के विधायक हैरान थे। मुख्यमंत्री को उनके मंत्रियों ने रोकने की कोशिश की, अध्यक्ष ने शान्त रहने को कहा लेकिन वो नहीं रुके। बीजेपी के विधायक अध्यक्ष के आसन के सामने आ गए तो भी नीतीश को गलती का एहसास नहीं हुआ। जीतनराम मांझी ने नीतीश को सदन में कोई जवाब नहीं दिया, वह दुखी होकर सदन से बाहर चले गए। विधानसभा की कार्यवाही स्थगित हो गई। बीजेपी के विधायकों ने जीतनराम मांझी के साथ बदसलूकी के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया। मांझी ने कहा कि उन्हें तो यक़ीन ही नहीं हो रहा कि ये वही नीतीश कुमार हैं, जो दस साल पहले थे, उन्हें नीतीश की बात सुनकर बुरा नहीं लगा, दुख हुआ क्योंकि नीतीश कोई आम इंसान नहीं है, वह बिहार के मुखिया हैं, मुख्यमंत्री हैं, और एक मुख्यमंत्री सदन में दूसरे नेता से तू-तड़ाक की भाषा में बात करे, पूर्व मुख्यमंत्री का अपमान करे, ये बिहार के लिए अच्छा नहीं है। मांझी ने कहा कि उन्हें लगता है कि मुख्यमंत्री का मानसिक संतुलन ख़राब हो गया है। उन्हें इलाज की ज़रूरत है। जब विवाद बढ़ा तो नीतीश का बचाव करने के लिए उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव सामने आए। तेजस्वी ने कहा कि मुख्यमंत्री ने कोई दलित विरोधी बयान नहीं दिया, वो तो ख़ुद वहां मौजूद थे। तेजस्वी ने कहा कि सरकार ने आरक्षण बढ़ाने का ऐतिहासिक काम किया है, लेकिन बीजेपी नहीं चाहती कि सरकार की ये उपलब्धि जनता तक पहुंचे, इसलिए बेवजह का विवाद खड़ा कर रही है।
तेजस्वी यादव भी जानते हैं कि नीतीश ने जो कहा, जिस अंदाज में कहा, जिन लफ़्ज़ों में कहा, वो ठीक नहीं था। लेकिन वो उपमुख्यमंत्री हैं, इसलिए मुख्यमंत्री का बचाव करना उनकी मजबूरी है। लेकिन नीतीश ने जो कहा उसका बचाव करना भी बेशर्मी है, क्योंकि नीतीश का व्यवहार हमारी संस्कृति, परंपरा, लोकतांत्रिक मर्यादा और पद की गरिमा के ख़िलाफ़ है। नीतीश मुख्यमंत्री हैं, ये सही है, लेकिन जीतनराम मांझी न सिर्फ महादलित हैं, बल्कि उम्र में भी नीतीश से बड़े हैं और उनका राजनीतिक अनुभव भी नीतीश से ज्यादा है। नीतीश को कम से कम उम्र का ख्याल रखना चाहिए था, लेकिन उन्होंने इसका भी ध्यान नहीं रखा। जहां तक जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने का सवाल है, नीतीश कुमार भूल गए कि जीतनराम मांझी उनसे ज्यादा बार चुनाव जीते हैं। मांझी पहली बार 1980 में विधायक बने थे, उस वक्त की सरकार में मंत्री थे। नीतीश कुमार पहला चुनाव 1985 में जीते। वो जब विधायक थे, उस वक्त मांझी मंत्री थे। मांझी कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्रियों की सरकार में मंत्री रहे, लालू और राबड़ी की सरकार में मंत्री रहे, नीतीश की सरकार में भी मंत्री रहे लेकिन लेकिन कभी अपने किसी नेता को धोखा नहीं दिया। जबकि नीतीश का पूरा राजनीतिक करियर धोखेबाजी का है। पहले लालू को धोखा दिया, फिर जार्ज फर्नांडिस को धोखा दिया, फिर शरद यादव की पीठ में छुरा घोंपा, बीजेपी की मदद से कुर्सी पर बैठे तो पलटी मारी। लालू की मदद से मुख्यमंत्री बने, फिर पलटी मारी, फिर बीजेपी के साथ आए, औऱ फिर लालू के साथ चले गए। तेजस्वी भी नीतीश को पलटू चाचा कहते थे। इसलिए नीतीश को किसी दूसरे बारे में ये कहने का हक़ तो कतई नहीं है कि वो सत्ता और कुर्सी का लालची है।
जहां तक मांझी को मुख्यमंत्री बनाने का सवाल है, ये भी नीतीश की सियासी चाल थी, ड्रामा था, जिसके चक्कर में मांझी फंस गए थे। नीतीश ने सिर्फ दलितों की हमदर्दी पाने के लिए, वोट पाने के लिए मांझी को कुर्सी सौंपी थी और जब काम निकल गया तो उन्हें बेइज्जत करके हटाया औऱ फिर कुर्सी पर बैठ गए। यही नीतीश का चरित्र है। लालू यादव ने एक बार नहीं कई बार कहा कि नीतीश के पेट में दांत हैं, वो किसी को भी धोखा दे सकते हैं। लेकिन राजनीति में ये सब होता रहता है, इसलिए नीतीश बच निकलते रहे। लेकिन पिछले दो दिन में उन्होंने सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया। उन्होंने जिस तरह मांझी को सदन के भीतर बेइज्जत किया, इससे लगा कि नीतीश ने वाकई में मानसिक संतुलन खो दिया है। वो एक महादलित, एक पूर्व मुख्यमंत्री, एक बुजुर्ग और अपने से ज्यादा सीनियर नेता का इस तरह अपमान कैसे कर सकते हैं? नीतीश जिस कुर्सी पर बैठे हैं, अगर उसकी मर्यादा का ख्याल नहीं रख सकते तो उनको मुख्यमंत्री बनाने वाले लालू यादव को सोचना चाहिए कि उन्होंने क्या किया? हो सकता है, नीतीश कल कहें कि गलती हो गई, माफ किया जाए, वो शर्मिंदा हैं, खुद अपनी निंदा करते हैं, लेकिन अगर वो ऐसा करते हैं, तो ये दिखावा होगा क्योंकि मंगलवार को उन्होंने महिलाओं का अपमान किया, बुधवार को दिन भर हाथ जोड़कर घूमते रहे, माफी मांगते रहे, लेकिन गुरुवार को एक पूर्व मुख्यमंत्री को भरी सभा में बेइज़्ज़त किया। नीतीश कुमार 18 साल से बिहार के मुक्यमंत्री हैं। लेकिन पिछले तीन दिन में नीतीश कुमार ने सारी हदों को पार कर दिया। उन्होंने जो कुछ कहा, उससे उनकी सार्वजनिक छवि ध्वस्त हो गई है। पहले महिलाओं के बारे में अश्लील बातें और अब पूर्व मुख्यमंत्री को गालियां। ऐसा व्यवहार न बिहार के लिए अच्छा है और न लालू यादव की आरजेडी के लिए। अगर नीतीश कुमार मानसिक संतुलन खो बैठे हैं, अपने होशोहवास में नहीं हैं तो ऐसे व्यक्ति के हाथ में बिहार की कमान होना खतरनाक है। अगर नीतीश कुमार का दिमाग ठिकाने पर है, पूरे होशोहवास में ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो ये और भी खतरनाक है। ऐसा व्यक्ति बिहार का मुख्यमंत्री बने रहने लायक नहीं है। लालू यादव और तेजस्वी यादव को सोचना चाहिए कि वो ऐसे नीतीश कुमार का बोझ कब तक उठाएंगे? ऐसी शर्मनाक हरकतें करने वाले शख्स को कब तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाएंगे? कब तक अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए नीतीश की सरकार को चलाते रहेंगे ? (रजत शर्मा)
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