Sunday, December 22, 2024
Advertisement
  1. Hindi News
  2. भारत
  3. राष्ट्रीय
  4. Rajat Sharma's Blog- द कश्मीर फाइल्स: कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार का स्याह सच

Rajat Sharma's Blog- द कश्मीर फाइल्स: कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार का स्याह सच

‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने बताया कि दर्शकों ने कैसे उन्हें और अनुपम खेर को अपने बीच देखकर तालियां बजाईं।

Written by: Rajat Sharma @RajatSharmaLive
Published : March 15, 2022 21:27 IST
Rajat Sharma Blog, Rajat Sharma Blog The Kashmir Files, Rajat Sharma, Blog
Image Source : INDIA TV India TV Chairman and Editor-in-Chief Rajat Sharma.

32 साल पहले घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के मुद्दे पर बनी 170 मिनट की फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' ने न केवल पूरे भारत में लाखों सिनेप्रेमियों की आत्मा को झकझोरा है, बल्कि देश के बड़े-बड़े नेता भी इसके बारे में बात कर रहे हैं। यह फिल्म बताती है कि कैसे उस समय की ताकतों ने एक स्याह, कड़वी सच्चाई को दबाने की कोशिश की थी। विवेक अग्निहोत्री द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म में अनुपम खेर, पल्लवी जोशी और मिथुन चक्रवर्ती ने अदाकारी की है।

मंगलवार को दिल्ली में बीजेपी संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'सच्चाई सामने लाने' के लिए फिल्म निर्माताओं की सराहना की। उन्होंने कहा, ‘मेरा विषय कोई फिल्म नहीं है, मेरा विषय है कि जो सत्य है, उसको सही स्वरूप में देश के सामने लाना, देश की भलाई के लिए होता है। उसके कई पहलू हो सकते हैं, किसी को एक चीज़ नज़र आती है, किसी को दूसरी चीज़ नज़र आएगी।’

इसके बाद मोदी ने इस फिल्म के आलोचकों पर निशाना साधा। उन्होंने कहा, ‘जो लोग हमेशा 'फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन' के झंडे लेकर के घूमते हैं, वो पूरी जमात बौखला गई है पिछले 5-6 दिन से, और फिर तथ्यों के  आधार पर, आर्ट के आधार पर उसकी विवेचना करने की बजाय उसको डिसक्रेडिट करने की मुहिम चलायी है। आपने देखा होगा, एक पूरी ईको-सिस्टम, कोई सत्य उजागर करने का साहस करे, उसको जो सत्य लगा, उसको प्रस्तुत करने की कोशिश की, लेकिन उस सत्य को न समझने की तैयारी, न स्वीकारने की तैयारी है, न ही दुनिया इसको देखे इसके लिए ये उनकी मंजूरी है, जिस प्रकार का षड्यंत्र पिछले 5-6 दिन से चल रहा है।’

प्रधानमंत्री ने कहा, ‘जिनको लगता है कि ये फिल्म ठीक नहीं है, वो अपनी फिल्म बनाएं, कौन मना कर रहा है? लेकिन उनको हैरानी हो रही है, कि जिस सत्य को इतने सालों से दबा करके रखा, उसको जब तथ्यों के आधार पर बाहर लाया जा रहा है, और जब कोई मेहनत करके ला रहा है, तो उसको, पूरी ईको-सिस्टम लग गई है, पूरी ईको सिस्टम।’

प्रधानमंत्री ने कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया। इस फिल्म में ऐसा क्या है?

इस फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों द्वारा बेगुनाह कश्मीरी पंडितों की पूरी प्लानिंग के साथ की गई नृशंस हत्याओं के बाद लाखों कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन कर गए। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे कुछ कश्मीरी मुसलमानों ने हत्यारों और बलात्कारियों के साथ मिलकर घाटी में उन स्याह दिनों में आतंक का माहौल बनाया।

कश्मीर में 1990 में 75343 कश्मीरी पंडितों के परिवार रहते थे। 1990 से 1992 के दौरान, सिर्फ 2 साल में कश्मीर से 70 हजार से ज्यादा कश्मीरी पंडितों के परिवारों को पलायन के लिए मजबूर किया गया। उनके घरों में तोड़फोड़ की गई, उनके घर जला दिए गए, दुकाने लूट ली गईं, जमीनों पर स्थानीय लोगों ने कब्जा कर लिया।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पलायन के दौरान 399 कश्मीरी पंडितों की हत्या की गई। अब हालत यह है कि कश्मीर में सिर्फ 9 हजार कश्मीरी पंडित बचे हैं। 1.5 लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडित आज भी शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। वे अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं।

अब 2 पीढ़ियां ही ऐसी बची हैं जो जानती हैं कि उनकी जड़ कहां हैं, उनके पुश्तैनी घर, जमीन-जायजाद कहां हैं। 32 सालों से अपनी मातृभूमि से दूर रहने वाले युवा आज अपनी जड़ों के बारे में नहीं जानते। ये युवा कभी-कभार घाटी यह देखने के लिए जाते हैं कि उनकी पुश्तैनी संपत्तियों की हालत क्या है, और उसमें से क्या बचा है। वे देखते हैं कि जो इमारतें कभी उनके पुरखों की हुआ करती थीं, जो सेब के बागान थे, उनपर अब किसी और का कब्जा है।

फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' की कहानी एक कश्मीरी पंडित पुष्कर नाथ पंडित, जिनका रोल अनुपम खेर ने निभाया है और उनके पोते कृष्णा पंडित, जिनका किरदार दर्शन कुमार ने निभाया है, के इर्द-गिर्द घूमती है। दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र नेता कृष्णा पंडित को पुष्कर नाथ पंडित बताते हैं कि उसके माता-पिता एक हादसे में मारे गए थे, लेकिन हकीकत कुछ और ही होती है।

फिल्म में निर्देशक विवेक अग्निहोत्री और अभिनेता अनुपम खेर ने जेएनयू के 'टुकड़े टुकड़े' गैंग के नारों 'भारत तेरे टुकड़े होंगे, ले के रहेंगे आजादी' को कृष्णा पंडित के चरित्र के साथ अच्छी तरह जोड़ा है। बतौर कश्मीरी, कृष्णा इस वामपंथी और अलगाववादी प्रॉपेगेंडा पर यकीन करना शुरू कर देता है कि कश्मीरी दशकों से सरकार की ज्यादतियों के शिकार हैं, लेकिन कश्मीरी पंडितों पर किए गए अत्याचारों की हकीकत के बारे में उसे कुछ पता नहीं होता है।

कृष्णा जेएनयू की प्रोफेसर राधिका मेनन के प्रभाव में है। इस भूमिका को पल्लवी जोशी ने निभाया है। राधिका मेनन 'कश्मीर की आजादी' में विश्वास करती है। जब कृष्णा अपने मृत दादा की अस्थियों को विसर्जित करने के लिए घाटी ले जाते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि उसके माता-पिता की मौत किसी दुर्घटना में नहीं हुई थी, बल्कि आतंकवादियों ने उन्हें बेरहमी से मारा था। कृष्णा के माता-पिता की हत्या की कहानी, बी. के. गंजू की सच्ची घटना पर आधारित है, जिन्हें 1990 में आतंकवादियों ने मार दिया था। कृष्णा को तब पता चलता है कि कैसे उसके दादा घाटी से पलायन कर गए और उसके माता-पिता की सच्चाई को उससे छिपा कर रखा।

कश्मीरी पंडितों की पीड़ा की कहानी इस फिल्म की असली ताकत है। यह फिल्म 11 मार्च को सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी। सिनेमाघरों से बाहर आने वाले लोग 'भारत माता की जय' के नारे लगाते हुए देखे गए। सिनेमा हॉल के बाहर तमाम लोग कश्मीरी पंडितों के लिए न्याय की मांग करते हुए, नारे लगाते हुए भी दिखे।

विवेक अग्निहोत्री ने बताया कि दर्शकों ने कैसे उन्हें और अनुपम खेर को अपने बीच देखकर तालियां बजाईं। लोग अनुपम खेर और विवेक अग्निहोत्री को गले लगाकर रोते-बिलखते देखे गए। केरल जैसे राज्यों में, जहां बॉलीवुड के सुपरस्टार्स की फिल्में भी शायद ही बहुत ज्यादा चलती हैं, सिनेप्रेमी 'द कश्मीर फाइल्स' की स्क्रीनिंग की मांग को लेकर धरने पर बैठे देखे गए। लोग आंखों में आंसू लिए सिनेमाघरों से बाहर आते देखे गए।

रिलीज होने के सिर्फ 3 दिनों के भीतर ही यह फिल्म चर्चा का विषय बन गई है। इस फिल्म के बारे में प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक, और राजनीतिक दलों के नेताओं से लेकर गली-मोहल्लों में आम आदमी तक बातें कर रहे हैं।

फिल्म देख रहे दर्शकों के यह देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि कैसे 19 जनवरी 1990 को घाटी में मस्जिदों के लाउडस्पीकरों ने सभी पंडितों को तुरंत घाटी छोड़ने या अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने का फरमान सुनाया गया। किस तरह महिलाओं और बच्चों का कत्ल हुआ, ये देखकर रूह कांप जाती है।

पहली बार कश्मीरी पंडितों का दर्द बड़े पर्दे पर उतरा है। इस फिल्म को देखने वाले कश्मीरी पंडितों का कहना है कि यह फिल्म काल्पनिक नहीं है, बल्कि उनके जीवन के साथ वास्तव में क्या हुआ है, इसका एक लेखा-जोखा है। यह स्याह सच है, जिसे उन्होंने और उनके परिवार के सदस्यों ने 3 दशकों से भी ज्यादा समय तक महसूस किया है।

भारत में पहली बार एक आम आदमी ने महसूस किया है कि कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार के बारे में स्याह सच को कुछ ताकतों ने जानबूझकर छिपाया था। अब वह आम आदमी कश्मीरी पंडितों के लिए न्याय की मांग करने लगा है।

'द कश्मीर फाइल्स' बताती है कि कैसे JKLF के आतंकवादियों ने आतंकवादी मकबूल भट को मौत की सजा का बदला लेने के लिए 4 नवंबर 1989 को श्रीनगर में हाई कोर्ट के पास एक बाजार में जस्टिस नीलकंठ गंजू की दिनदहाड़े हत्या कर दी थी।

इस फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि चावल के ड्रम में छिपे हुए एक टेलीकॉम इंजीनियर बी. के. गंजू को कैसे उनके ही मुस्लिम पड़ोसियों ने धोखा दिया। हत्यारों ने गंजू को ड्रम से बाहर खींचा, उन्हें गोलियां मारी और वहां रखा चावल उनके खून से सन गया। गंजू की पत्नी को अपने पति के खून से सने हुए चावल खाने के लिए मजबूर किया गया।

फिल्म में एक और सच्ची कहानी है एक यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरियन गिरिजा टिक्कू की। गिरिजा अपनी तनख्वाह का चेक लेने गई थीं, और वापस आते समय उन्हें एक बस से खींचकर टैक्सी में डाला गया। टैक्सी में कुल मिलाकर 5 लोग थे, जिनमें उनका एक सहकर्मी भी था। उन सभी ने गिरिजा के साथ बलात्कार किया गया और फिर एक आरी से उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।

घाटी में कश्मीरी पंडितों के निर्मम नरसंहार को लेकर पिछले 3 दशकों में कोई भी जानकारी ठीक से दर्ज नहीं की गई। मैं कश्मीर में उन स्याह दिनों का गवाह हूं जब श्रीनगर की गलियों में 'कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाहू अकबर कहना है', 'कश्मीर में अगर रहना है, तो आजादी के लिए मरना है' जैसे नारे लगाए जाते थे। उस वक्त कश्मीरी पंडितों की बेरहमी से हत्या की गई, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उनके टुकड़े किए गए, लेकिन इस तरह की घटनाओं को उस समय की ताकतों ने दबा दिया।

जगन्नाथ पंडित की हत्या करके उनका शव सरेआम लटका दिया गया था। उनके बेटे रविन्द्र पंडित, जो कि अब गाजियाबाद में रहते हैं, ने बताया कि 1990 में वह अपने 2 छोटे भाइयों और एक बड़े भाई के साथ कश्मीर छोड़कर जम्मू आ गए थे। लेकिन उनके पिता जगन्नाथ पंडित कश्मीर के हंदवाड़ा में अपने घर पर ही रुक गए थे। जगन्नाथ पंडित कश्मीर में तहसीलदार थे। रविन्द्र पंडित ने बताया कि 5 आतंकी आए, उन्हें घसीटकर एक खेत में ले गए, उन्हें कंटीले तारों से बांधकर पेड़ से लटका दिया, उन्हें टॉर्चर करते रहे और अंत में उनकी हत्या कर दी। रविन्द्र पंडित ने कहा कि उनके पिता का शव 3 दिन तक पेड़ से लटकता रहा। गांव में उनके अंतिम संस्कार तक की इजाजत नहीं दी गई। आखिर में जगन्नाथ पंडित का शव दूसरे गांव ले जाकर उनका अंतिम संस्कार किया गया।

कश्मीरी पंडितों की हत्या का दौर 1989 में ही शुरू हो गया था, जब बीजेपी के एक लोकप्रिय नेता टीका लाल टपलू की श्रीनगर में उनके घर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। टपलू ने जिहादियों से धमकी मिलने के बाद अपने परिवार को दिल्ली भेज दिया था, लेकिन खुद श्रीनगर लौटने का फैसला किया। कश्मीरी पंडित आज भी 14 सितंबर को शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं।

अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने का दर्द क्या होता है, ये कश्मीरी पंडित जानते हैं। वे जानते हैं कि सरकारी मदद पर निर्वाह करते हुए, एक बेघर का जीवन व्यतीत करते हुए, परिवार किस तरह की तकलीफें झेलते हैं। यह समझना होगा कि कश्मीरी पंडितों का मुद्दा कोई सियासी मुद्दा नहीं है। ये संवेदनाओं से जुड़ा इंसानियत का मुद्दा है। हर भारतीय की भावना कश्मीर पंडितों की तकलीफों के साथ जुड़ी हैं।

32 साल बाद, 1.5 लाख कश्मीरी पंडित अभी भी शिविरों में रह रहे हैं। इस समुदाय की भावनाओं और तकलीफों को आसानी से समझा जा सकता है। बहुत से नौजवान अपने बाप-दादा का घर देखकर आते हैं, लेकिन अब भी किसी की हिम्मत नहीं कि जाकर दूसरों द्वारा हड़पी गई अपनी संपत्तियों अपना हक जता सकें।

सोचिए जिसके पिता को बेरहमी से मारा गया होगा, जिसके दादा को जिंदा जला दिया गया होगा, उस पर क्या बीतती होगी। चूंकि भारत में आम लोगों ने पहली बार पर्दे पर स्याह, छिपे हुए सच को देखा है, इस फिल्म को सभी वर्गों का समर्थन मिल रहा है। यूपी, एमपी, गुजरात, कर्नाटक, गोवा, त्रिपुरा और उत्तराखंड समेत 8 राज्य सरकारों ने इस फिल्म को एंटरटेनमेंट टैक्स फ्री घोषित किया है।

हालांकि, मुझे दुख होता है जब कांग्रेस के कुछ नेता इसे हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा बनाने की कोशिश करते हैं। सोमवार को, केरल कांग्रेस ने सोशल मीडिया में हंगामे के बाद, इस फिल्म में बताए तथ्यों के जवाब में पोस्ट किए गए ट्वीट्स को डिलीट कर दिया।

डिलीट किए गए उन ट्वीट्स में क्या था? उन ट्वीट्स में कश्मीरी पंडितों की हत्याओं और पलायन के मुद्दे को यह तर्क देते हुए आंकड़ों में तौलने की कोशिश की गई कि 1990-2007 के दौरान कश्मीर में 399 पंडितों के मुकाबले 15,000 मुस्लिम मारे गए थे।

एक अन्य ट्वीट में यह दावा किया गया था कि भारत के विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों (1948) में जम्मू-कश्मीर में एक लाख से ज्यादा मुसलमान मारे गए थे, जबकि किसी कश्मीरी पंडित की जान नहीं गई थी।

डिलीट किए गए ट्वीट में कहा गया कि आतंकी हमलों के बाद कश्मीरी पंडितों को सुरक्षा मुहैया कराने की बजाय तत्कालीन राज्यपाल और बीजेपी-आरएसएस समर्थक जगमोहन ने निर्देश दिया कि पंडितों को घाटी छोड़ देनी चाहिए। हालांकि, शाम को केरल में कांग्रेस ने ट्वीट किया: ‘हम कश्मीरी पंडितों के मुद्दे के बारे में कल के ट्वीट्स में कहे गए हर एक तथ्य के साथ खड़े हैं। हालांकि, हमने इस थ्रेड के एक हिस्से को हटा दिया है, यह देखते हुए कि बीजेपी नफरत की फैक्ट्री को संदर्भ से बाहर ले जा रही है और अपने सांप्रदायिक प्रचार के लिए इसका इस्तेमाल कर रही है। हम सच बोलना जारी रखेंगे।’

मैं आपसे 2 बातें कहना चाहता हूं।

एक तो ये कि कश्मीरी पंडितों पर जो जुल्म हुआ, वह जितना दर्दनाक था, उससे ज्यादा दर्दनाक ये था कि 32 साल से भी ज्यादा समय तक इसके सच को दबाया गया। वह सच कभी भारत लोगों तक पहुंच ही नहीं पाया।

जैसे आज यूक्रेन में छोटे-छोटे बच्चों को, बिलखती महिलाओं को, घर छोड़कर भागना पड़ रहा है,  उसकी तस्वीरें हमें दिखाई देती हैं और जेहन में छप जाती हैं। लेकिन जब कश्मीरी पंडितों का खून बहाया गया, वहां जब छोटे-छोटे बच्चों को, बेकसूर महिलाओं को, अपना घर छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया गया तो ये किसी कैमरे में कैद नहीं हुआ। उस जमाने में न तो कैमरे वाले मोबाइल फोन थे, न आज की तरह न्यूज दिखाने वाले टीवी चैनल्स के कैमरे।

इसीलिए जब ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने जब 3 दशकों से जमीन के नीचे दबे दर्द को सामने लाकर खड़ा कर दिया, तो लोग सिहर उठे, उनके रोंगटे ख़ड़े हो गए, उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। आज ही इंडिया टीवी में मेरी एक सहयोगी ने बताया कि वह केमिस्ट के पास दवाई लेने गई थीं, और केमिस्ट ने उनसे पूछा क्या उन्होंने यह फिल्म देखी है। केमिस्ट ने फिर उन्हें बताया कि उसने अपनी दुकान के सारे स्टाफ को छुट्टी दी है और फिल्म देखने के लिए पैसे दिए हैं।

एक दूसरा रिएक्शन ये भी मिला कि फिल्म देखने के बाद किसी ने कहा कि अच्छी फिल्म बनाई है, तो लोग चिल्लाने लगे कि ‘इसे फिल्म न कहो, ये हमारी जिंदगी का सच है, दस्तावेज है।’

दूसरी बात ये कि जब इस फिल्म की बात हुई, कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों का जिक्र हुआ, तो कुछ लोगों ने कहा कि मुसलमानों समेत अन्य लोगों पर भी जुल्म हुआ है। मुझे लगता है कि ये कश्मीरी पंडितों के साथ अन्याय है। उनके दर्द की किसी के साथ तुलना नहीं की जा सकती। उन्हें जिस तरह से कश्मीर छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा, उनका घर, प्रॉपर्टी, बैंक बैलेंस सब पीछे छूट गया और उन्हें बरसों तक शिविरों में रहना पड़ा, इस तकलीफ की, इस दर्द की किसी से तुलना नहीं की जानी चाहिए।

मैं पहली बार देख रहा हूं कि बेघर कश्मीरी पंडितों का मुद्दा सोशल मीडिया, न्यूज चैनलों और थिएटर स्क्रीन पर उठाया जा रहा है। विदेशों में रह रहे भारतीय भी कश्मीरी पंडितों की तकलीफ से वाकिफ हुए हैं। हमें उनके दर्द को न कभी भूलना चाहिए और न दूसरों को भूलने देना चाहिए। (रजत शर्मा)

देखें: ‘आज की बात, रजत शर्मा के साथ’ 14 मार्च, 2022 का पूरा एपिसोड

Latest India News

India TV पर हिंदी में ब्रेकिंग न्यूज़ Hindi News देश-विदेश की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट और स्‍पेशल स्‍टोरी पढ़ें और अपने आप को रखें अप-टू-डेट। National News in Hindi के लिए क्लिक करें भारत सेक्‍शन

Advertisement
Advertisement
Advertisement