देश के कई राज्यों में सोमवार को काफी राजनीतिक हलचल रही। भारत के नये राष्ट्रपति के चुनाव के लिए सांसदों और विधायकों ने वोट डाले। सबसे बड़ी खबर यह रही कि एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में विपक्षी दलों के कई सांसदों और विधायकों ने जमकर क्रॉस वोटिंग की। मुर्मू की जीत वैसे भी पहले से तय मानी जा रही थी। वोटों की गिनती गुरुवार को होगी। विपक्ष ने यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बनाया था। सारे रूझान इसी बात की तरफ इशारा कर रहे हैं कि द्रौपदी मुर्मू 25 जुलाई को भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेंगी।
कुल 4,796 सांसदों और विधायकों ने वोट डाले और 99 प्रतिशत मतदान हुआ। 11 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में शत-प्रतिशत मतदान हुआ। खबरें हैं कि कांग्रेस और कई अन्य विपक्षी दलों के विधायकों ने अपनी 'अंतरात्मा की आवाज' को सुनकर मुर्मू को वोट दिया। राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आने के बाद कई राज्यों में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।
राष्ट्रपति चुनाव में कुल 765 सांसदों ने मतदान किया, तो कुल 4025 विधायकों में से 99 फीसदी ने अपने वोट का इस्तेमाल किया। विपक्षी दल ‘संविधान, लोकतंत्र और देश बचाने’ के नाम पर यशवंत सिन्हा के लिए वोट मांग रहे थे, लेकिन अपनी पार्टी में टूट भी नहीं बचा पाए। तेलंगाना, गुजरात, ओडिशा, असम, मेघालय और उत्तर प्रदेश में विपक्षी दलों के कई विधायकों ने मुर्मू को वोट दिया।
सबसे दिलचस्प तस्वीर तो यूपी में दिखी। यहां समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव ने मुर्मू को वोट दिया। अपना वोट देने के बाद शिवपाल यादव ने पत्रकारों से कहा, ‘मैं यशवंत सिन्हा को वोट कैसे दे सकता हूं जिन्होंने मुलायम सिंह यादव को ISI का एजेंट कहा था? कोई भी कट्टर समाजवादी नेताजी के बारे में ऐसी बात स्वीकार नहीं कर सकता। नेता जी के विचारधारा के लोग ऐसे लोगों को कभी वोट नही देंगे।’
शिवपाल यादव ने आरोप लगाया कि सिन्हा को समर्थन देने से पहले अखिलेश यादव ने किसी से सलाह नहीं ली। इसके जवाब में अखिलेश यादव ने कहा, ‘चाचा को बीजेपी की बातें भी याद रखनी चाहिए। बीजेपी ने मुलायम सिंह यादव के बारे में क्या-क्या कहा था। लगता है वह सब भूल गए।’
अखिलेश यादव के गठबंधन सहयोगी ओमप्रकाश राजभर ने भी उनका साथ छोड़ दिया। राजभर की पार्टी के सभी 5 विधायकों ने मुर्मू के पक्ष में वोट किया। राजभर ने कहा, ‘विपक्षी दलों ने तो हारने के लिए यशवंत सिन्हा को मैदान में उतारा है। हमारा गठबंधन अखिलेश के ही साथ है, लेकिन हमने एनडीए उम्मीदवार को वोट दिया।’ इसका जवाब देते हुए अखिलेश ने कहा, ‘हमें पता है कि यशवंत सिन्हा नहीं जीतेंगे, लेकिन वह मैदान में डटे रहे यही बड़ी बात है। जहां तक ओमप्रकाश राजभर का सवाल है, तो जाने वाले को कौन रोक पाया है। बीजेपी जोड़-तोड़ का खेल कर रही है।’
यह सही है कि शिवपाल यादव या ओमप्रकाश राजभर के जाने से फिलहाल न समाजवादी पार्टी को कोई बहुत बड़ा नुकसान होगा, और न बीजेपी को कोई फायदा होगा लेकिन इसका असर भविष्य की राजनीति पर दिखेगा। असल में समाजवादी पार्टी पुराने नेता, जो मुलायम सिंह यादव के करीबी हैं, अखिलेश से नाराज हैं क्योंकि वह उन्हें तवज्जो नहीं देते।
इसीलिए शिवपाल और आजम खां जैसे समाजवादी पार्टी के स्तंभ अखिलेश यादव से दूर हो गए। जहां तक ओमप्रकाश राजभर का सवाल है, तो उनकी पार्टी छोटी है और उसका असर पूर्वांचल तक ही सीमित है। बिना सत्ता के या सरकार से दूर रहकर पार्टी चलाना मुश्किल होता है। इसलिए ओमप्रकाश राजभर धीरे-धीरे बीजेपी के साथ जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान उनकी गणित गड़बड़ हो गई क्योंकि उन्होंने सोचा था कि अखिलेश की सरकार बन जाएगी। ओमप्रकाश इसी चक्कर में अखिलेश के साथ गए थे वरना वह पहले भी बीजेपी के साथ थे और योगी सरकार में मंत्री थे। अगर वह फिर बीजेपी के साथ जाते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
असम में कांग्रेस के सहयोगी दल AIUDF ने आरोप लगाया है कि कम से कम 20 कांग्रेसी विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की है। AIUDF के विधायक करीमुद्दीन बरभुइया ने कहा कि राज्यसभा चुनाव में भी कांग्रेस के विधायकों ने विपक्षी उम्मीदवार को वोट नहीं दिया, और राष्ट्रपति चुनाव में फिर धोखा दे दिया।
ओडिशा में नवीन पटनायक के नेतृत्व वाले बीजू जनता दल ने मुर्मू का समर्थन किया क्योंकि वह इसी राज्य की निवासी हैं। BJD और BJP के सभी विधायकों ने मुर्मू को वोट दिया। यहां तक कि कांग्रेस के एक विधायक मोहम्मद मुकीम ने भी द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट डाला और खुलकर कहा कि पार्टी ने यशवंत सिन्हा को वोट देने का आदेश दिया था, लेकिन उन्होंने अपने दिल की बात सुनी। मेघालय और तेलंगाना में भी कांग्रेस के कुछ विधायकों के वोट यशवंत सिन्हा को नहीं मिले। मेघालय और गुजरात में शरद पवार की पार्टी के विधायकों ने भी मुर्मू को वोट दिया। तेलंगाना में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की TRS खुलकर यशवंत सिन्हा का समर्थन कर रही थी, लेकिन उसके भी 2 सांसदों ने NDA उम्मीदवार के लिए वोटिंग की।
कुल मिलाकर राष्ट्रपति चुनाव में विरोधी दलों की एकता पूरी तरह बिखर गई। शरद पवार, के. चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जी और सोनिया गांधी की राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी को तगड़ी टक्कर देने की सारी कोशिशें बेकार गईं। RJD नेता तेजस्वी यादव ने कहा, ‘नतीजा जो होगा देखा जाएगा, लेकिन इस बात तो संतोष रहेगा कि जब सब बीजेपी के सामने झुक रहे थे, तब RJD ने मैदान नहीं छोड़ा संविधान बचाने की लड़ाई लड़ी।’
राष्ट्रपति के चुनाव ने एक बार फिर साबित कर दिया कि नरेंद्र मोदी हर चुनावी लड़ाई पूरी शिद्दत से लड़ते हैं, जीतने के लिए पूरी ताकत लगा देते हैं। मोदी सिर्फ जीतने के लिए नहीं लड़ते, विपक्ष को पूरी तरह धूल चटाने के लिए लड़ते हैं। पहले तो मोदी ने राष्ट्रपति के चुनाव के लिए द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाकर देश भर में यह संदेश दिया कि उन्होंने एक महिला आदिवासी को देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद को संभालने का मौका दिया है।
नतीजा यह हुआ कि उद्धव ठाकरे और हेमंत सोरेन जैसे नेता मोदी के घोर विरोधी होते हुए भी उनकी उम्मीदवार का समर्थन करने के लिए मजबूर हो गए। यशंवत सिन्हा तो ममता बनर्जी की पार्टी तणमूल कांग्रेस में थे लेकिन सामने आदिवासी उम्मीदवार को देखकर ममता भी यशंवत सिन्हा का जोर-शोर से समर्थन करने का साहस नहीं जुटा पाईं। कांग्रेस अपने आप को सबसे बड़ा विरोधी दल कहती है लेकिन उसका साथ देने वाली पार्टियां भी द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी का विरोध करने से कतराने लगीं।
इसका नतीजा सोमवार को देखने को मिला। असम, तेलंगाना और अन्य कई राज्यों में क्रॉस वोटिंग हुई। झारखंड में कांग्रेस के सहयोगी दल JMM ने NDA की उम्मीदवार का समर्थन किया। अब इसका असर देश की राजनीति पर क्या होगा, यह जल्दी नजर आएगा। नरेंद्र मोदी ने यह तो दिखा दिया कि फिलहाल विपक्षी एकता नाम की कोई चीज नहीं है, लेकिन लगता है कांग्रेस को इन सब बातों की कोई फिक्र नहीं है। कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी मोदी को चुनौती देने का फैसला करते हुए मार्गरेट अल्वा को मैदान में उतारा है। मार्गरेट अल्वा का मुकाबला जगदीप धनखड़ से होगा, जिन्होंने सोमवार को नामांकन दाखिल किया।
उपराष्ट्रपति के चुनाव में सिर्फ लोकसभा और राज्यसभा के सांसद वोट डालते हैं। इसमें जीत के लिए 390 वोट चाहिए और NDA के पास 394 वोट हैं, इसलिए जगदीप धनखड़ की जीत तय है। अगर 5 नामांकित सांसद भी धनखड़ को वोट देते हैं, तो यह आंकड़ा 399 पर पहुंच जाता है। मार्गरेट अल्वा को वोटों का समीकरण पता है। उन्होंने कहा, जीत और हार तो लगी रहती है, लेकिन वह मुकाबला ज़रूर करेंगी।
लोकतंत्र में मुकाबला होना भी चाहिए, यह स्वस्थ परंपरा है लेकिन संवैधानिक पदों पर फैसला आम सहमति से हो तो बेहतर है। (रजत शर्मा)
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