28 सदस्यों वाले विपक्षी गठबंधन की दो दिन तक चली बैठक शुक्रवार को मुंबई में संपन्न हो गई। बैठक में संकल्प लिया गया कि आगामी लोकसभा चुनाव 'जहां तक संभव हो' एकजुट होकर लड़ा जाएगा। एक पेज के प्रस्ताव में कहा गया है कि सीटों के बंटवारे के मुद्दे पर बातचीत 'तुरंत शुरू की जाएगी और इसे गिव एंड टेक की सहयोगात्मक भावना के साथ अंजाम दिया जाएगा।' संबंधों में किसी भी गड़बड़ी को दूर करने और संयुक्त अभियान और संचार रणनीति तैयार करने के लिए 14 सदस्यीय समन्वय समिति का गठन किया गया है। गठबंधन ने अभी संयोजक नियुक्त नहीं किया है और लोगो को भी अंतिम रूप नहीं दिया गया है। I.N.D.I.A. अलायन्स के जो नेता ये कह रहे हैं कि विपक्षी एकता से मोदी डर गए हैं, मोदी नर्वस हैं, वे शायद मोदी को जानते ही नहीं। जो लोग कह रहे हैं कि मोदी, विरोधी दलों की एकता से घबरा गए हैं, वे नहीं जानते कि मोदी किस मिट्टी के बने हैं। नर्वस होना, डरना, घबराना ये मोदी की फितरत में है ही नहीं। 13 साल पहले जब वह गुजरात में मुख्यमंत्री थे तो मोदी पर कौन सा हमला नहीं हुआ? उन्हें 'मौत का सौदागर' कहा गया, 'मुसलमानों का हत्यारा' कहा गया। पुलिस भी आई, SIT भी बनी, पूछताछ भी हुई, कोर्ट में केस चले, मीडिया के हमले हुए, अमेरिका ने वीजा नहीं दिया, पूरी दुनिया में बदनामी हुई। केंद्र सरकार ने मोदी को पिन डाऊन करने के लिए पूरी ताकत लगा दी। उस्ताद पुलिस अफसर, चालाक ब्यूरोक्रैट, चतुर राजनेता सब मिलकर मोदी के पीछे लग गए। मेधा पाटकर, तीस्ता सीतलवाड़ जैसे न जाने कितने NGO वाले मोदी को घेरने की कोशिश करते रहे। पर मोदी इन सारे हमलों का सामना करते रहे, बिना डरे लड़ते रहे, गुजरात में चुनाव जीतते रहे। जब मोदी लोकसभा का चुनाव लड़े तो सारे विरोधी दल इसी तरह मोदी के खिलाफ थे जैसे आज हैं। सब कहते थे मोदी कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे। सब मानकर बैठे थे कि मोदी चुनाव नहीं जीत पाएंगे, लेकिन मोदी ने सबको धूल चटा दी। दूसरी बार चुनाव हुआ तो 'चौकीदार चोर है' का नारा लगा। मोदी को उद्योगपतियों का दोस्त, किसानों का दुश्मन साबित करने की भरपूर कोशिश हुई, लेकिन पब्लिक पर इसका कोई असर नहीं हुआ। इस बार इल्जाम तानाशाही का है, लोकतंत्र की तबाही का है, पर अभी तक कोई साबित नहीं कर पाया कि मोदी ने लोकतंत्र के विरोध में ऐसा क्या किया है। विरोधी दलों ने कहा कि मोदी इस बार जीत गए तो देश में कभी चुनाव नहीं होंगे। मोदी ने इसका जवाब दे दिया कि वह लोकसभा, विधानसभा, पंचायत सारे चुनाव कराना चाहते हैं, एकसाथ कराना चाहते हैं ताकि लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हों। हर सरकार को, राज्य में हों या केंद्र में, पांच साल बिना किसी बाधा के काम करने का मौका मिले। इसीलिए मैंने कहा कि मोदी को हराने के नाम पर एक हुए विरोधी दलों के नेता 9 साल में भी मोदी को पहचान नहीं पाए। वे समझ नहीं पाए कि मोदी किधर जा रहे हैं। वे इसी गलतफहमी में हैं और रहेंगे कि मोदी डर गए और मोदी किसी और रास्ते से आ जाएंगे।
एक देश, एक चुनाव: दुविधा में है विपक्ष
'वन नेशन, वन इलेक्शन' की दिशा में शुक्रवार को नरेन्द्र मोदी की सरकार ने एक कदम और बढ़ा दिया। सरकार ने 'वन नेशन, वन इलेक्शन' पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में कमेटी का गठन कर दिया। इस कमेटी के गठन के एलान के बाद सियासत का रुख बदल गया। मुंबई में चल रही विरोधी दलों के गठबंधन की मीटिंग में भी ये मुद्दा छाया रहा। योगी आदित्यनाथ, शिवराज सिंह चौहान, मनोहर लाल खट्टर, हिमंता विश्व शर्मा और एकनाथ शिन्दे जैसे तमाम बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने बिना देर किए कह दिया कि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ हों, और ये जितने जल्दी होगा उतना अच्छा होगा। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और NCP जैसे विरोधी दलों के नेताओं ने भी इसका सीधे-सीधे विरोध नहीं किया। लेकिन किसी ने कहा कि मोदी विपक्ष की एकता से डर गए हैं इसलिए 'वन नेशन, वन इलेक्शन' की बात शुरू की है, किसी ने कहा कि बीजेपी को राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में हार साफ दिख रही है इसलिए मोदी 'एक देश, एक चुनाव' की बात कर रहे हैं तो किसी ने कहा कि मोदी ने सिर्फ शिगूफा छोड़ा है, होगा कुछ नहीं। लेकिन जो कानून के जानकार हैं, जो देश में चुनाव प्रक्रिया से जुड़े रहे हैं, संविधान के विशेषज्ञ हैं, वे कह रहे हैं कि 'वन नेशन, वन इलेक्शन' हो सकता है, होना भी चाहिए, लेकिन ये आसान नहीं है। प्रक्रिया बहुत लंबी और जटिल है, इसलिए कम से कम 2024 के इलेक्शन से पहले इसे लागू करना आसान नहीं होगा। आजादी के बाद हमारे देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते थे। 1967 तक 'वन नेशन, वन इलेक्शन' का फॉर्मूला चला था। उस वक्त पूरे देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था, लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस में बगावत शुरू हुई, कांग्रेस से टूट कर नई नई पार्टियां बनने लगी, राज्यों में उठापटक शुरू हुई, उसके बाद 'वन नेशन, वन इलेक्शन' का सिलसिला टूट गया। ऐसा भी नहीं है कि 2015 में नरेन्द्र मोदी ने जो लॉ कमीशन बनाया, उसने पहली बार 'वन नेशन, वन इलेक्शन' की सिफारिश की। इससे पहले इंदिरा गांधी की सरकार के वक्त 1982-83 में भी लॉ कमीशन ने यही सिफारिश की थी, लेकिन उस वक्त इस पर ध्यान नहीं दिया गया। 2018 में जस्टिस बी एस चौहान की अध्यक्षता वाले लॉ कमीशन ने फिर यही सिफारिश की। दिलचस्प बात ये है कि अकाली दल और समाजवादी पार्टी ने इसका सपोर्ट किया था। उस वक्त नीतीश कुमार भी 'वन नेशन, वन इलेक्शन' के फेवर में थे। अखिलेश यादव ने इस वक्त इसका स्वागत किया था, उद्धव ठाकरे भी सपोर्ट में थे, स्वर्गीय प्रकाश सिंह बादल ने भी इसे देश के लिए जरूरी बताया था। 2018 में सिर्फ असदुद्दीन ओवैसी, ममता बनर्जी और एचडी देवेगौड़ा ने स्पष्ट रूप से इसका विरोध किया था। लेकिन अब सियासी हालात बदल गए हैं, इसलिए पार्टियों और नेताओं का स्टैंड भी बदला है। हालांकि तमाम पार्टियों को नेता ये समझ रहे हैं कि इसे लागू करना आसान नहीं होगा क्योंकि कमेटी की रिपोर्ट आने में वक्त लगेगा। फिर कम से कम 15 विधानसभाओं से इसके समर्थन में प्रस्ताव पारित कराना होगा। तब केन्द्र सरकार बिल लाएगी जिसे संसद में दो तिहाई बहुमत से पास कराना होगा और इसके लिए कम से कम 5 संविधान संशोधन करने होंगे। उसके लिए भी दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत की जरूरत होगी। इन सब कामों में वक्त लगेगा, इसलिए पार्लियामेंट के स्पेशल सेशन में ये सब हो जाएगा, इसकी उम्मीद तो कम है। लेकिन मोदी के लिए कोई काम नामुमकिन नहीं है, अगर मोदी ने ठान लिया होगा तो उन्होंने रास्ते भी निकाल लिए होंगे। इसीलिए विरोधी दल परेशान हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि भले ही 'वन नेशन, वन इलेक्शन' इस बार लागू न हो पाए, लेकिन मोदी इसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकते हैं। इसीलिए विरोधी दलों के नेता न इसका विरोध कर रहे हैं, न इसका सपोर्ट कर रहे हैं। उन्होंने इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली है। (रजत शर्मा)
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