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Mulayam Singh Yadav Death: जब-जब चुनौतियां आई, ताकतवर बनकर उभरे 'नेताजी'

Mulayam Singh Yadav Death: मुलायम सिंह यादव के जाने से एक राजनीतिक युग का अंत हो गया है। नब्बे के दशक की राजनीति के वे 'किंग' भी थे और 'किंगमेकर' भी।

Written By: Deepak Vyas @deepakvyas9826
Updated on: October 10, 2022 10:25 IST
Mulayam Singh Yadav- India TV Hindi
Image Source : INDIA TV Mulayam Singh Yadav

Mulayam Singh Yadav Death: देश के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ मुलायम सिंह यादव नहीं रहे। वे लंबे समय से मेदांता अस्पताल में भर्ती थे। मुलायम सिंह का जाना केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक राजनीतिक युग का अंत है। उत्तर प्रदेश की राजनीति का पर्याय माने जाने वाले मुलायम सिंह देश के सर्वमान्य नेता रहे। देश के प्रति उनके समर्पण और कुछ कर गुजरने के ध्येय को हमेशा विपक्ष का भी अच्छा प्रतिसाद मिला। समाजवाद का झंडा उठाने वाले मुलायम सिंह ने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। वे सर्वमान्य नेता थे। पीएम नरेंद्र मोदी के साथ ही अटल विहारी वाजपेयी जैसे पीएम भी उनके विचारों का सम्मान करते थे। वे जब सदन में बोलते थे, तो उनके वक्तव्यों में केवल सत्ता पक्ष का विरोध करना नहीं बल्कि देश की समस्या और देश के विकास के रास्ते पर चलने वाले सुझाव और चिंताएं हुआ करती थीं। जिसका सत्ता पक्ष ने हमेशा सम्मान किया। 

ऐसा रहा मुलायम सिंह का राजनीतिक सफर

उनका राजनीतिक सफर अगर देखें तो 1967 में, वह उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गए।  फिर 1977 में, वह पहली बार उत्तर प्रदेश के राज्य मंत्री बने। 1982 से 1985 तक, उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान परिषद में विपक्ष के नेता के रूप में पद संभाला। वे पहली बार यूपी जैसे बड़े सूबे के सीएम बने, वो साल था 1989 का। जब देश एक नए उदारीकरण के दौर में प्रवेश कर रहा था। 1989: में, वह पहली बार यूपी के सीएम बने। 1990 का दौर था, जब कांग्रेस अपने शबाब से नीचे की ओर आ रही थी। तब तीसरे मोर्चे की संभावनाएं पहली बार देश में वृहद स्तर पर सोची जाने लगी थी। ऐसे समय में बलिया के चंद्रशेखर से वे प्रभावित हुए और 1990 में वे चंद्रशेखर की पार्टी जनता दल (समाजवादी) में शामिल हो गए। 

'नेताजी' ने 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना की। ये वो समय था जब यूपी की राजनीति उनके इर्द गिर्द घूमती थी। उन्होंने अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप हर बात को मुखरता से रखा। समाजवाद का झंडा उठाने वाले मुलायम सिंह 1993 में दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।

यूपी की सियासत से संसद तक का सफर

यूपी के सीएम बनने के बाद आया साल 1996, जब उन्होंने मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ा। वे इस चुनाव में जीतकर लोकसभा सदस्य बन गए। ये वो दौर था, जब कांग्रेस पीवी नरसिंहा राव को 5 साल पीएम के रूप में देख चुकी थी, कांग्रेस से जनता मुक्त होकर अब बदलाव चाहती थी। देश का ये वो दौर था जब कांग्रेस से परे एक नई सोच को सत्ता में लाने की हवा चल रही थी। ऐसे दौर में बीजेपी जनता की भले ही बड़ी पसंद थी, लेकिन जनता का मत विभाजन होने की पूरी संभावना थी। ऐसे समय में तीसरे मोर्चे की अहमियत बढ़ गई। तीसरे मोर्चे को खड़ा करने और ताकतवर बनाने में जो राजनीतिक हलचलें रहीं, उनके सबसे बड़े कर्ताधर्ताओं में मुलायम सिंह यादव थे। 

1999 में रक्षामंत्री बनकर चीन के खिलाफ उठाई आवाज

1999 में उन्होंने दो लोकसभा सीटों संभल, कन्नौज से चुनाव लड़ा और दोनों ही सीटें जीतीं। इस बार वे संयुक्त मोर्चा गठबंधन सरकार के अंतर्गत भारत के रक्षा मंत्री बन गए। वे हमेशा से ही चीन के खिलाफ आवाज उठाते रहे। जब रक्षा मंत्री बने तो उनकी यही सोच थी कि चीन से सटी भारत की सीमा को और मजबूत बनाया जाए, रक्षामंत्री के बतौर उन्होंने कई अहम कार्य किए। 

2003 में तीसरी बार यूपी के सीएम बने मुलायम

वे जब देश की राजनीति में वे रक्षामंत्री के बतौर काम कर रहे थे। इसके बाद 2003 में वे तीसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री बन गए। 2004 में उन्होंने गन्नौर विधानसभा सीट पर जीत दर्ज की थी, जो अब तक की सबसे बड़ी जीत का रिकॉर्ड माना जाता है। फिर वे 2004 मैनपुरी क्षेत्र से लोकसभा चुनाव जीत गए।

2014 में दो सीटों से लड़े, दोनों पर ही मिली विजयश्री

मुलायम सिंह ने उम्र को कभी अपनी राजनीति पर हावी नहीं होने दिया। 2014 का चुनाव आया और नरेंद्र मोदी की जीत की आंधी के बीच उन्होंने चुनाव लड़ने का निर्णय किया और दो सीटों आज़मगढ़, मैनपुरी से चुना लड़ा और दोनों ही सीटों पर जीत दर्ज की। 

जब जब चुनौतियां आईं, तब तब ताकतवर बनकर उभरे मुलायम

जब जब मुलायम सिंह के परिवार में राजनीतिक उठापटक रहीं।  तब तब उन्होंने ही अपने अनुभव से इसका समाधान निकाला। अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव के बीच मतभेद मुलायम के साथ एक बैठक के बाद खत्म हो जाया करते थे। लेकिन एक तरफ अपने भाई और एक तरफ अपने बेटे, सभी के बीच समन्वय करने की हर चुनौती का उन्होंने सामना किया। रामगोपाल यादव, शिवपाल यादव जैसे भाइयों और एक ही परिवार यानी यादव कुनबे की अलग अलग राजनीतिक सोच का अंतिम समाधान मुलायम सिंह के पास ही होता था। 

 

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