Monday, December 23, 2024
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कश्मीरी पंडितों के लिए 32 साल की देरी के बाद कानूनी विकल्प

कश्मीरी संगठन व्यक्तिगत रूप से या संयुक्त रूप से इस मुद्दे को उठा सकते हैं और वर्तमान सक्षम जम्मू-कश्मीर सरकार को एसआईटी या न्यायिक आयोग बनाने के लिए मजबूर कर सकते हैं। इन दुर्भाग्यपूर्ण प्रवासी हिंदुओं को न्याय दिलाने की जरूरत है, जिनकी आवाज पिछले 32 सालों से कभी नहीं सुनी गई।

Reported by: IANS
Published : March 20, 2022 20:29 IST
Kashmiri Pandit
Image Source : PTI Members of Global Kashmiri Pandit Diaspora (GKPD)

नई दिल्ली: पीड़ितों के परिवार आतंकवाद के कारण अपने ऊपर किए गए अत्याचारों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने के लिए कश्मीर वापस नहीं जा सके, ऐसे में सवाल उठता है कि उनके लिए 32 साल बाद क्या विकल्प हैं। आतंकवादियों और स्थानीय लोगों द्वारा दुष्कर्म, हत्या, क्रूरता, लूट और आगजनी की वास्तविक घटनाओं को दिखाने वाली फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को देखने के बाद जनता का गुस्सा चरम पर है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) या कश्मीरी संगठन व्यक्तिगत रूप से या संयुक्त रूप से इस मुद्दे को उठा सकते हैं और वर्तमान सक्षम जम्मू-कश्मीर सरकार को एसआईटी या न्यायिक आयोग बनाने के लिए मजबूर कर सकते हैं। इन दुर्भाग्यपूर्ण प्रवासी हिंदुओं को न्याय दिलाने की जरूरत है, जिनकी आवाज पिछले 32 सालों से कभी नहीं सुनी गई। भारतीय आपराधिक कानून कहीं भी प्राथमिकी दर्ज करने की सीमा को परिभाषित नहीं करता है। पहले भी कई ऐसे मौके आए हैं, जब दुष्कर्म पीड़िताओं ने 15 साल बाद एफआईआर दर्ज कराई थी। यहां तक कि सीआरपीसी की धारा 473 भी अदालत को किसी पुराने मामले पर तभी विचार करने की अनुमति देती है, जब वह 'न्याय के हित' में हो या जब निवारण की मांग में 'देरी' को ठीक से समझाया गया हो।

तस्वीरें और वीडियो पीड़ितों के परिवार के सदस्यों के साथ-साथ मीडिया, विशेष रूप से कश्मीर में समाचार पत्रों और समाचार एजेंसियों के पास उपलब्ध हैं, जो अदालत में सबूत का हिस्सा बन सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अंकुश मारुति शिंदे और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एआईआर 2009 एससी 2609 के मामले में माना है कि समाज की सुरक्षा और आपराधिक प्रवृत्ति को खत्म करना कानून का उद्देश्य होना चाहिए, जिसे उचित सजा देकर हासिल किया जाना चाहिए।

'व्यवस्था' की इमारत की आधारशिला के रूप में कानून को समाज के सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करना चाहिए, क्योंकि इस तरह के जघन्य प्रकृति के अपराधों के मामले में किसी भी तरह की नरमी न्याय का उपहास होगा और उदारता की दलील पूरी तरह से अनुचित होगी। सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में यह माना था कि यौन अपराध की पीड़िता का सबूत बिना पुष्टि के भी बड़े वजन का हकदार है। यदि अभियोक्ता के साक्ष्य विश्वास को प्रेरित करते हैं, तो भौतिक विवरणों में उसके बयान की पुष्टि किए बिना उस पर भरोसा किया जाना चाहिए।

तुलसीदास कनोलकर बनाम गोवा राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्राथमिकी दर्ज करने में देरी को अभियोजन के मामले को खारिज करने और इसकी प्रामाणिकता पर संदेह करने के लिए एक कर्मकांडीय सूत्र के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यह अदालत को केवल यह देखने और विचार करने के लिए पहरा देता है कि क्या देरी के लिए कोई स्पष्टीकरण दिया गया है। एक बार पेश किए जाने के बाद न्यायालय को केवल यह देखना होता है कि यह संतोषजनक है या नहीं।

अब सवाल यह उठता है कि कश्मीरी प्रवासियों के पास 32 साल बाद न्याय पाने के लिए क्या विकल्प हैं। पहला विकल्प यह है कि जम्मू-कश्मीर सरकार को इस नरसंहार की जांच के लिए कश्मीरी पंडित संगठनों के अनुरोध पर एक पुलिस उपायुक्त की अध्यक्षता में एक विशेष जांच दल (SIT) का गठन करना चाहिए।

दूसरा विकल्प एक न्यायिक आयोग है, जिसे जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत नियुक्त किया जाता है। तीसरा विकल्प यह है कि संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के तहत इस हिंदू 'नरसंहार' के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वत: संज्ञान लिया जाए, ताकि उस अवधि के शीर्ष अधिकारियों/मंत्रियों या प्रशासकों को कड़ी सजा दी जा सके। इसे आतंकवाद का निशाना बनने वाले परिवारों के पीड़ितों को उचित मुआवजा देकर राहत भी प्रदान करनी चाहिए।

(रमेश वांगनू दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत करने वाले वकील हैं)

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