Highlights
- ये नारा 4 जुलाई, 1944 को म्यांमार में नेताजी के भाषण में हुई थी
- इस गीत को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार्य कर लिया गया।
- 'इंकलाब जिंदाबाद' नारा के जनक मौलाना हसरत मोहानी है
75 years of independence:- अब इन नारों का जन्म क्यों हुआ और कितना असरदार ये नारा होता था। आज इसी के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
"जय हिंद और नेताजी सुभाष चंद्र का कनेक्शन"
बंगाल के नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) के सैनिकों के लिए 'जय हिंद' को लोकप्रिय बनाया, जो द्वितीय विश्व युद्ध में नेताजी के सहयोगी जापान के साथ लड़े थे। लेकिन कुछ खातों के अनुसार, नेताजी ने वास्तव में नारा नहीं गढ़ा था। पूर्व सिविल सेवक और इतिहासकार नरेंद्र लूथर ने कहा कि यह शब्द हैदराबाद के एक कलेक्टर के बेटे ज़ैन-उल आबिदीन हसन द्वारा गढ़ा गया था, जो अध्ययन करने के लिए जर्मनी गए थे। वहीं पर वो बोस से मिले और आईएनए में शामिल होने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी। उनके भतीजे अनवर अली खान ने बाद में लिखा कि खान को बोस द्वारा आईएनए के सैनिकों के लिए एक सैन्य अभिवादन लिखने के लिए जिम्मेदारी दी, जिसके बाद एक नारा जो जाति या समुदाय से संबंध नहीं था, जिसे बाद में आईएनए का आधार माना गया। लूथर की किताब कहती है कि हसन ने शुरुआत में 'हैलो' का सुझाव दिया था, जिसे बोस ने खारिज कर दिया था। अनवर अली खान के अनुसार, 'जय हिंद' का विचार हसन को तब आया जब वह जर्मनी के कोनिग्सब्रुक शिविर में थे। उसने दो राजपूत सैनिकों को 'जय रामजी की' के नारे के साथ एक-दूसरे को बधाई देते सुना। इससे उनके दिमाग में 'जय हिंदुस्तान की' का विचार आया और फिर इसे 'जय हिंद' कर दिया गया, जिसका अर्थ है 'लॉन्ग लिव इंडिया' या भारत के लिए लड़ाई का नेतृत्व करने का आह्वान।
"तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा"
वनिता रामचंदानी द्वारा संपादित पुस्तक 'सुभाष चंद्र बोस: द नेशनलिस्ट एंड द कमांडर - व्हाट नेताजी डिड, व्हाट नेताजी सेड' के अनुसार, इस नारे की उत्पत्ति 4 जुलाई, 1944 को म्यांमार में नेताजी के भाषण में हुई थी, जिसे अब बर्मा कहा जाता था। "अंग्रेज एक विश्वव्यापी संघर्ष में लगे हुए हैं और इस संघर्ष के दौरान उन्हें कई मोर्चों पर हार का सामना करना पड़ा है। दुश्मन इस प्रकार काफी कमजोर हो गया है, स्वतंत्रता के लिए हमारी लड़ाई पांच साल पहले की तुलना में बहुत आसान हो गई है। भारतीयों को द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने के लिए भेजा था इस यूद्ध में बुरी तरह से अंग्रेज टूट गए थे। बोस ने कहा कि ऐसा अवसर फिर नहीं आएगा हमारे दुश्मन पूरी तरह से कमजोर हो गए हैं। अब पूर्वी एशिया में भारतीयों के लिए एक आधुनिक सेना बनाने के लिए हथियार प्राप्त करना आसान हो गया है। आगे उन्होंने कहा कि मैं आपसे एक चीज मांगता हुं। मैं आपसे खून की मांग करता हूं। यह खून ही है जो दुश्मन द्वारा बहाए गए खून का बदला खून ले सकता है, जो आजादी की कीमत चुका सकता है। "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दुंगा"
"वंदे मातरम"
ये नारा मातृभूमि के प्रति व्यक्त सम्मान की भावना को दिखाता है कि आप अपने राष्ट्र के लिए कितना समर्पित है। 1870 में बंगाली उपन्यासकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने एक गीत लिखा जिसे काफी लोगों ने प्यार दिया हालांकि कुछ लोगों के द्वारा इसे सांप्रदायिक नारा बना दिया गया। ब्रिटिश शासन समाप्त होने के बाद इस गीत को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार्य कर लिया गया।
"इंकलाब जिंदाबाद"
मौलाना हसरत मोहानी ने 1921 में 'इंकलाब जिंदाबाद' नारा को आजादी के आंदोलन को जिंदा रखने के लिए पहली बार प्रयोग किया। इनका जन्म उन्नाव जिले के मोहन शहर में हुआ था। हसरत एक क्रांतिकारी उर्दू कवि के रूप में उनका कलम नाम (तखल्लुस) था, जो एक राजनीतिक नेता के रूप में उनकी पहचान भी बन गया। हसरत मोहानी एक श्रमिक नेता, विद्वान, कवि और 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। इस नारा को सबसे अधिक किसने प्रयोग किया होगा तो वो भगत सिंह है। 1920 के दशक में यह नारा भगत सिंह और उनकी नौजवान साथ ही साथ हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के लिए भी एक युद्ध का नारा बन गया। 8 अप्रैल, 1929 को जब उन्होंने और बी.के दत्त ने विधानसभा में बम गिराए तब इस नारेबाजी की चर्चा पूरे देश में भर में हुई थी।
"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बज़ू-ए-क़तिल में है"
पंजाब के अमृतसर में 1921 के जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद बिहार के एक स्वतंत्रता सेनानी और कवि बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा एक कविता लिखी गई। इसी कविता की दो पक्तिंया जिसमें लिखा था कि "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बज़ू-ए-क़तिल में है। इसे बाद में नारा के रूप में स्वीकार्य कर लिया गया है। इस पक्तियों का प्रयोग भारतीय सिनेमा जगत में काफी किया गया था।
"करो या मरो"
8 अगस्त 1942 में महात्मा गांधी ने मुबंई के गोवालिया टैंक मैदान में लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि करो या मरो, देश को आजाद कराओं या कोशिश करते-करते जान दे दो। किसी भी स्थिति में गुलामी की बेड़ियों को तोड़ देना है। इस नारा के बाद भारतीयों के अंदर आजादी पाने के लिए जोश भर दिया था। 1942 में ही भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत की गई थी।