नयी दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार पर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाते हुए 2002 के दंगों के दौरान बिलकिस बानो से सामूहिक दुष्कर्म और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के मामले में 11 दोषियों को सजा में छूट देने के राज्य सरकार के फैसले को सोमवार को रद्द कर दिया और दोषियों को दो सप्ताह के अंदर जेल भेजने का निर्देश दिया। न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने कहा कि सजा में छूट का गुजरात सरकार का आदेश बिना सोचे समझे पारित किया गया और पूछा कि क्या ‘‘महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराध के मामलों में सजा में छूट की अनुमति है’’, चाहे वह महिला किसी भी धर्म या पंथ को मानती हो।
घटना के वक्त बिलकिस बानो 21 साल की थीं और पांच माह की गर्भवती थीं। बानो से गोधरा ट्रेन अग्निकांड के बाद 2002 में भड़के दंगों के दौरान दुष्कर्म किया गया था। दंगों में मारे गए उनके परिवार के सात सदस्यों में उनकी तीन साल की बेटी भी शामिल थी। गुजरात सरकार ने सभी 11 दोषियों को 15 अगस्त 2022 को सजा में छूट दे दी थी और उन्हें रिहा कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कही ये बड़ी बात
पीठ ने कहा, ‘‘हम गुजरात सरकार द्वारा शक्तियों का दुरुपयोग करने के आधार पर सजा में छूट के आदेश को रद्द करते हैं।’’ पीठ ने 100 पन्नों से अधिक का फैसला सुनाते हुए कहा कि गुजरात सरकार सजा में छ्रट का आदेश देने के लिए उचित सरकार नहीं है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि जिस राज्य में किसी अपराधी पर मुकदमा चलाया जाता है और सजा सुनाई जाती है, उसे ही दोषियों की सजा में छूट संबंधी याचिका पर निर्णय लेने का अधिकार होता है। दोषियों पर महाराष्ट्र द्वारा मुकदमा चलाया गया था।
पीठ ने कहा, ‘हमें अन्य मुद्दों को देखने की जरूरत नहीं है। इस केस में कानून के शासन का उल्लंघन हुआ है, क्योंकि गुजरात सरकार ने उन अधिकारों का इस्तेमाल किया, जो उसके पास नहीं थे और उसने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया। उस आधार पर भी सजा में छूट के आदेश को रद्द किया जाना चाहिए।’’
कोर्ट के फैसले पर वृंदा ग्रोवर ने दी प्रतिक्रिया
शीर्ष अदालत ने सजा में छूट संबंधी दोषियों में से एक की याचिका पर गुजरात सरकार को विचार करने का निर्देश देने वाली अपनी एक अन्य पीठ के 13 मई, 2022 के आदेश को ‘अमान्य’ माना और कहा कि यह ‘अदालत से धोखाधड़ी’ करके और ‘तथ्यों को छिपाकर’ हासिल किया गया। फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सेवानिवृत्त आईपीएस (भारतीय पुलिस सेवा) अधिकारी मीरान चड्ढा बोरवंकर और अन्य की ओर से पेश हुईं वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर ने इसे बहुत अच्छा फैसला बताया।
ग्रोवर ने संवाददाताओं से कहा, ‘‘.(इस फैसले ने) कानून के शासन और इस देश के लोगों विशेष रूप से महिलाओं की कानूनी प्रणाली, अदालतों में आस्था को बरकरार रखा है और न्याय का आश्वासन दिया है।’’ मई 2022 के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर नहीं करने के लिए गुजरात सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि केवल महाराष्ट्र ही छूट संबंधी आदेश पारित कर सकता था।
कोर्ट ने किया-हुआ है कानून का उल्लंघन
पीठ ने कहा, ‘‘शीर्ष अदालत के 13 मई, 2022 के आदेश का लाभ उठाते हुए अन्य दोषियों ने भी सजा में छूट के लिये अर्जी दायर की थी।.गुजरात (सरकार) की इसमें मिलीभगत थी और उसने इस मामले में प्रतिवादी संख्या तीन (दोषियों में से एक) के साथ मिलकर काम किया। तथ्यों को छिपाकर अदालत को गुमराह किया गया।’’ शीर्ष अदालत ने यह भी माना कि संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत बिलकिस बानो द्वारा सजा में छूट को चुनौती देने के लिये दायर जनहित याचिका विचारणीय है।अनुच्छेद 32 के अनुसार, ‘‘यह एक मौलिक अधिकार है, जिसमें कहा गया है कि व्यक्तियों को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त अन्य मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए उच्चतम न्यायालय (एससी) से संपर्क करने का अधिकार है।’’
न्यायमूर्ति नागारत्ना ने दिया प्लूटो का हवाला
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने यूनानी दार्शनिक प्लेटो के कथन का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘दंड प्रतिशोध के लिए नहीं, बल्कि रोकथाम और सुधार के लिए दिया जाना चाहिए, क्योंकि जो हो चुका है, उसे पूर्ववत नहीं किया जा सकता है, ।’’ प्लेटो ने कहा है कि कानून देने वाले को, जहां तक हो सके उस चिकित्सक की तरह काम करना चाहिए, जो केवल दर्द के लिए नहीं, बल्कि रोगी का भला करने के लिए दवा देता है। सजा के इस उपचारात्मक सिद्धांत में दंड की तुलना दंडित किए जाने वाले व्यक्ति की भलाई के लिए दी जाने वाली दवा से की गई है।
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि पीड़िता के अधिकार भी महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा, ‘‘एक महिला सम्मान की हकदार है, भले ही उसे समाज में कितना भी ऊंचा या नीचा माना जाए या वह किसी भी धर्म या पंथ को मानती हो।’’ उन्होंने कहा, ‘‘क्या महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराध के मामलों में सजा में छूट दी जा सकती है? ये ऐसे मुद्दे हैं, जो पैदा होते हैं।’’
पिछले साल 12 अक्टूबर को शीर्ष अदालत ने बिलकिस बानो द्वारा दायर याचिका समेत अन्य याचिकाओं पर 11 दिन की सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। शीर्ष अदालत ने फैसला सुरक्षित रखते हुए केंद्र और गुजरात सरकार को 16 अक्टूबर तक 11 दोषियों की सजा माफी से संबंधित मूल रिकॉर्ड जमा करने का निर्देश दिया था। गुजरात सरकार द्वारा दोषियों की सजा में दी गई छूट को चुनौती देने वाली बानो द्वारा दायर याचिका के अलावा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की नेता सुभाषिनी अली, स्वतंत्र पत्रकार रेवती लाल और लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति रूप रेखा वर्मा, तृणमूल कांग्रेस नेता महुआ मोइत्रा सहित कई अन्य ने जनहित याचिकाएं दायर कर इस राहत के खिलाफ चुनौती दी थी।
(इनपुट-पीटीआई भाषा)