लखनऊ/नई दिल्ली: कुछ दिन पहले जब प्रयागराज में गंगा में बहती लाशें दिखी थीं, जब गंगा किनारे दफनाई गई लाशों नजर आई थीं, तब कई सारे एक्सप्लेनेशन दिए गए थे। कुछ लोगों ने कहा कि कोरोना से भारी संख्या में लोग मरे हैं, परिवार वाले डर गए हैं, कोरोना से मरने वालों के शव को कोई हाथ भी नहीं लगाना चाहता, इसलिए इन्हें या तो गंगा में बहा दिया गया है या फिर दफना दिया गया है। लेकिन, यहां गौर देने वाली बात है कि उनमें से कोई भी शव कोरोना प्रोटोकॉल के तहत पॉलिथीन में लिपटा हुआ नहीं था। एक और बात यह सुनने को मिली कि इतनी तादाद में मौते हुई हैं कि श्मशान में लकड़ियां मंहगी हो गई हैं, सामग्री महंगी हो गई हैं, दाह संस्कार करने का खर्चा इतना ज्यादा आ रहा है कि लोगों ने शवों को दफना दिया लेकिन बाद में पता चला कि अगर परिवार वाले गरीब हैं या कोरोना पेशेन्ट का अन्तिम संस्कार करने से डर रहे हैं तो ऐसे शवों का अन्तिम संस्कार कराने में प्रसासन मदद करता है। खैर, जब गंगा में शव तैरते मिले तो राजनीति भी हुई।
राजनाति हुई, मामला बड़ा हुआ, हमने पड़ताल की
राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा से लेकर अखिलेश यादव की पार्टी के लोगों ने पूछा कि गंगा में तैरती लाशों के लिए कौन जिम्मेदार है। प्रवक्ताओं ने तो कहा कि सरकार को शर्म आनी चाहिए। न सवाल उठाना गलत था, न आरोप लगाना, ये तो पूछा जाना ही चाहिए था कि लाशे कहां से आईं। लेकिन, चिंता तब हुई जब तैरती लाशों की तस्वीरें न्यॉयार्क टाइम्स में, वाशिंगटन पोस्ट में और गार्जियन जैसे बड़े-बड़े अखबारों में छपी, इंटरनेट पर गंगा किनारे दफनाई गई लाशों को लेकर हाहाकार मचा लेकिन इस सवाल का जबाव कहीं नहीं था कि ये लाशें क्यों बहाई गई, क्यों दफनाई गईं। हमारे रिपोर्टर्स ने, हमारे रिसर्चर्स ने इस मामले की गहराई से जांच की। सवाल सिर्फ इतना था कि वो कौन सी मजबूरी थी कि हमारे लोग अपनों का दाह संस्कार करने के बजाए उन्हें गंगा में बहाने पर विवश हो गए, क्या कारण था कि शवों को श्मसान घाट में जलाने के बजाए उन पर राम नाम का दुपट्टा डालकर गंगा किनारे दफना दिया गया।
अमर उजाला: 2015 और 2021 में छपी खबरों में अंतर?
14 जनवरी 2015 को अमर उजाला अखबार में छपा 'उन्नाव में गंगा में बहती मिली 104 लाशों से सनसनी, घाट पर पहुचा प्रशासन। लोगों ने परिजनों के शवों को प्रवाहित किया। प्रशासन ने आनन-फानन में जेसीबी बुलवाकर लाशों को दफन करवाया। शासन से मिलने वाले पैसे से अन्तिम संस्कार, लाशों को दफनाने का विरोध करने पहुंचे राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं को पुलिस ने रोका। प्रशासन ने कहा विरोध करने वालों के खिलाफ सख्त कारवाई होगी।' वहीं, 14 मई 2021 को यानी बारह दिन पहले अमर उजाला में जो खबर छपी उसमें लिखा है कि उन्नाव के खेरेश्वर घाट भी सैकड़ों लाशों से अटा पड़ा है। गंगा के बीच में और किनारे पर कई शव दफनाए गए। करीब तीन सौ मीटर के दायरे में जिधर भी निगाहें दौड़ाई गईं, शव ही शव नजर आए। शवों के ऊपर से बालू हटी तो मृतकों के परिजनों की बेबसी और मजबूरी सामने आ गई। बताया जा रहा है कि आसपास के ग्रामीण लकड़ी महंगी होने और आर्थिक तंगी के चलते सूखी गंगा में ही शव दफनाकर चले गए।
दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर ने भी छापा
14 जनवरी 2015 को जागरण अखबार में छपा कि 'गंगा में सौ से अधिक शव उतराते मिले, तहलका मच गया। IG और प्रसासन मौके पर पहुंचे। जेसीबी बुलवा कर शवों को दफनाया गया।' उस खबर में यह भी लिखा था कि 'शवों को खाने के लिए चील, कौए और सियार भी टूट पड़ते हैं।' आपको जानकर हैरानी होगी कि उस समय बीजेपी के नेता इन लाशों पर सवाल उठा रहे थे, वो पूछ रहे थे कि घाट पर इतनी बड़ी संख्या में लाशें कहां से आई। बीजेपी के MP साक्षी महाराज ने जांच कराने की मांग भी की थी। लेकिन, अब मई 2021 में भी ऐसी ही खबरें और लाशों की तस्वीरें छपी। दैनिक भास्कर ने प्रयागराज में गंगा के किनारे रेत में दफन लाशों की खबर छापी। भास्कर ने लिखा कि प्रयागराज के फाफामऊ गंगा घाट के किनारे भी बड़ी संख्या में दफन शव मिले। आस-पास के लोगों ने बताया कि हर दिन करीब 15 से 20 शवों को यहां दफन किया जा रहा है। घाट के किनारे करीब 150 से ज्यादा शव दफन हैं।
विदेशी अखबारों ने क्या छापा?
हमारे देश के अखवारों में जब इस तरह की तस्वीरें छपी तो पूरी दुनिया में चर्चा हो गई। बड़े-बड़े विदेशी अखवारों ने खबरें छापीं। 20 मई को गार्जियन ने गंगा के किनारे दफन लाशों की तस्वीरें छापी और लिखा 'Strech of death pervades rural india as ganga swells with covid victims, stigma and cost of wood leaves families with no choice but to immeres their dead in river.' वाशिंगटन पोस्ट ने 22 मई को खबर छापी- 'The mystery of the hundreds of bodies found in India's Ganges river' । पूरी दुनिया में इस तरह की खबरें इस अंदाज में छापी गईं जैसे कोरोना से हो रही मौतों का अन्तिम संस्कार भी नहीं हो रहा है। लोग मजबूरी में लाशों को गंगा में फेंक रहे हैं या नदी के किनारे गाड़ रहे हैं।
पहले छपी खबरों के जैसी ही हैं अब छपने वाले खबरें
लेकिन हमारे यहां के जिन अखबारों ने अभी खबरें छापी उनमें छह साल पहले भी खबरें छपी थीं। जो खबरें पहले छपी थी और जो आज छपी हैं, वो खबरें भी एक जैसी हैं। हैडलाइन भी वैसी ही हैं, जगहें वही हैं- उन्नाव और प्रयागराज, गंगा वही है, घाट वही हैं, घाटों का मंजर वही है, बस वक्त बदला है, रेत के नीचे दबी लाशें बदली हैं और किरदार बदले हैं। पहले सरकार अखिलेश यादव की थी, विरोध करने वाले बीजेपी के नेता थे। अब सरकार बीजेपी की है और विरोध करने वाले, सवाल उठाने वाले कांग्रेस के हैं, समाजवादी पार्टी के हैं, छह साल पहले जो बातें बीजेपी के नेता कह रहे थे, अब उसी तरह की बयानवाजी समाजवादी पार्टी के लोग कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के लोगों ने कहा कि 'जिला प्रासाशन ने मरने वालों की संख्या को छुपाने के लिए लाशों रेत के नीचे दबा दिया।' सिर्फ वक्त बदला है, सरकार बदली है, लाशों की संख्या बढ़ी है लेकिन गंगा में लाशें तब भी थी, गंगा के किनारे दफनाए गए शव तब भी थे और आज भी हैं। 2018 में भी ऐसी खबरें आई थीं। ऐसे में हमें पता चला कि प्रयागराज में गंगा किनारे रेत में लाशें दफनाई जाती है, ऐसा काफी पहले से चला आ रहा है।
शव दफनाने की परंपरा, संख्या बढ़ी
हालांकि, इतना जरूर है कि इस बार जितनी लाशों को दफनाया गया या गंगा में बहाया गया वो पहले के मुकाबले काफी ज्यादा है। हमारी संवाददाता रूचि कुमार भी इस मामले की जांच पड़ताल के लिए कई दिनों से प्रयागराज में थी। रूचि कुमार ने घाट पर रहने वालों से, मल्लाहों से वहां पूजा पाठ कराने वाले और अन्तिम संस्कार कराने वाले पंडों से बात की। पंडो ने भी यही कहा कि यहां पहले से भी शवों को दफनाया जाता है। ये जरूर है कि कोरोना काल में डेडबॉडी आने की संख्या बढ़ गई। लेकिन, शव पहले से ही दफन किए जाते हैं। कई लोगों में शव दफनाने की परम्परा है और यहां सिर्फ प्रयागराज से नहीं सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, अमेठी, रायबरेली और लखनऊ से भी लोग शवों का अन्तिम संस्कार करने आते हैं लेकिन इस बार कोरोना का प्रकोप है इसलिए लाशों की संख्या पिछले सालों के मुकाबले कापी ज्यादा हो गई है।