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जब पाकिस्तान का राष्ट्रगान लिखने वाले शायर ने भगवान कृष्ण पर रची नज़्म

इस साल पाकिस्तान का 70वां स्वतंत्रता दिवस और कृष्ण जन्माष्टमी एक ही दिन 14 अगस्त को पड़े। इस मौक़े पर बरबस उर्दू नज़्म कृष्ण कन्हैया की याद आ गई जिसे हफ़ीज़ जालंधरी ने लिखा था। जालंधरी ने पाकिस्तान का राष्ट्रगान (क़ौमी तराना) लिखा था।

Written by: India TV News Desk
Published : August 31, 2017 9:59 IST
Krishna
Krishna

इस साल पाकिस्तान का 70वां स्वतंत्रता दिवस और कृष्ण जन्माष्टमी एक ही दिन 14 अगस्त को पड़े। इस मौक़े पर बरबस उर्दू नज़्म कृष्ण कन्हैया की याद आ गई जिसे हफ़ीज़ जालंधरी ने लिखा था। जालंधरी ही वो शायर हैं जिन्होंने पाकिस्तान का राष्ट्रगान (क़ौमी तराना) लिखा था।

हफ़ीज़ जालंधरी का जन्म जालंघर में एक पंजाबी परिवार में हुआ था। 1947 में विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। 

जैसा कि कृष्ण कन्हैया के शीर्षक से ज़ाहिर है, ये नज़्म हिंदू भगवान कृष्ण के बारे में है। आज के ज़माने में किसी मुस्लिम कवि का किसी हिंदू भगवान के बारे में लिखना तरह-तरह की भावनाओं-प्रसन्नता, जिज्ञासा, संदेह, क्रोध, को जगाता है। लेकिन कृष्ण कन्हैया नज़्म महज़ भगवान कृष्ण की स्तुति नहीं, इससे कहीं ज़्यादा है। ये महज़ भक्ति भाव से लिखी गई एक नज़्म नही है बल्कि भक्ति गीत के साथ-साथ राजनीतिक तेवर भी लिए हुए है।

दरअसल इसमें बारत को ब्रिटिश शासन से आज़ाद कराने का आव्हान किया गया है। इस नज़्म से हमें 20वीं सदी के दक्षिण एशिया और आज की सांस्कृतिक राजनीति के बारे में काफी कुछ पता चलता है। 

नज़्म की पहली ही लाइन में जालंधरी अपने पाठकों को ''देखने वालों'' की तरह संबोधित करते हैं। यूं तो तो ये मामूली बात लग सकती है लेकिन शायर ने इस शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर किया है। उर्दू शायरी अमूमन सुनी जाती है। ग़ज़ल गाई जाती है जबकि नज़्म (गीत) अमूमन पढ़ी जाती है। इसके बावजूद जालंधरी ने अपनी इस नज़्म कृष्ण कन्हैया के पाठकों ''देखने वालों'' की तरह संबोधित किया है। 

हिंदू धर्म के मानने वाले मंदिर जाकर भगवान के दर्शन करते हैं। दर्शन के दौरान वे भगवान की मूर्ति को मग्न होकर निहारते ताकि दैवीय शक्ति का एहसास हो सके। कृषण कन्हैया गीत में ''सुनने वालों'' या ''पढ़ने वालों'' की बजाय ''देखने वालों'' की तरह संबोधित कर शायद जालंधरी उन्हें उनके दिमाग़ में दर्शन का एहसास करवाने की कोशिश कर रहे हैं। वे उन्हें नज़्म सुनते या पढ़ते वक़्त दिमाग़ में कृष्ण को सजीव करने के लिए प्रेरित करते हैं।

जालंधरी आगे चलकर गीत में पूछते हैं कि कृष्ण ''मअनी है कि सूरत'' और फिर कृष्ण को ''ये पैकर-ए-तनवीर'' की तरह संबोधित करते हैं और फिर पूछते है- ''ये नार है या नूर।'' 

इन विवरण के कई मतलब निकलते हैं। फ़र्स्ट पोस्ट में छपे एक लेख के मुताबिक़ शरजील इमाम और साक़िब सलीम का कहना है कि जालंधरी का कृष्ण को नूर (रौशनी) की तरह देखना कुछ इस्लामिक विद्वानों की सदियों पुरानी इस आस्था की तरफ़ इंगित करता है कि इस  उपमहाद्वीप में कृष्ण को पैग़म्बर के रुप में भेजा गया था। 

जालंधरी ने इस नज़्म में वृंदावन को पूरे उपमहाद्वीप के रुप में दर्शाया है जो ब्रिटिश शासन से त्रस्त है। वह कृष्ण से मथुरा लौटकर अपना शासन स्थापित करने का आव्हान करते हैं- ''तू आए तो शान आए, तू आए तो जान आए।'' नज़्म इसी नोट पर ख़त्म होती है। 

कृष्ण कन्हैया

ऐ देखने वालो 

इस हुस्न को देखो 
इस राज़ को समझो 
ये नक़्श-ए-ख़याली 
ये फ़िक्रत-ए-आली 
ये पैकर-ए-तनवीर 
ये कृष्ण की तस्वीर 
मअनी है कि सूरत 
सनअ'त है कि फ़ितरत 
ज़ाहिर है कि मस्तूर 
नज़दीक है या दूर 
ये नार है या नूर 
दुनिया से निराला 
ये बाँसुरी वाला 
गोकुल का ग्वाला 
है सेहर कि एजाज़ 
खुलता ही नहीं राज़ 
क्या शान है वल्लाह 
क्या आन है वल्लाह 
हैरान हूँ क्या है 
इक शान-ए-ख़ुदा है 
बुत-ख़ाने के अंदर 
ख़ुद हुस्न का बुत-गर 
बुत बन गया आ कर 
वो तुर्फ़ा नज़्ज़ारे 
याद आ गए सारे 
जमुना के किनारे 
सब्ज़े का लहकना 
फूलों का महकना 
घनघोर घटाएँ 
सरमस्त हवाएँ 
मासूम उमंगें 
उल्फ़त की तरंगें 
वो गोपियों के साथ 
हाथों में दिए हाथ 
रक़्साँ हुआ ब्रिजनाथ 
बंसी में जो लय है 
नश्शा है न मय है 
कुछ और ही शय है 
इक रूह है रक़्साँ 
इक कैफ़ है लर्ज़ां 
एक अक़्ल है मय-नोश 
इक होश है मदहोश 
इक ख़ंदा है सय्याल 
इक गिर्या है ख़ुश-हाल 
इक इश्क़ है मग़रूर 
इक हुस्न है मजबूर 
इक सेहर है मसहूर 
दरबार में तन्हा 
लाचार है कृष्णा 
आ श्याम इधर आ 
सब अहल-ए-ख़ुसूमत 
हैं दर पए इज़्ज़त 
ये राज दुलारे 
बुज़दिल हुए सारे 
पर्दा न हो ताराज 
बेकस की रहे लाज 
आ जा मेरे काले 
भारत के उजाले 
दामन में छुपा ले 
वो हो गई अन-बन 
वो गर्म हुआ रन 
ग़ालिब है दुर्योधन 
वो आ गए जगदीश 
वो मिट गई तशवीश 
अर्जुन को बुलाया 
उपदेश सुनाया 
ग़म-ज़ाद का ग़म क्या 
उस्ताद का ग़म क्या 
लो हो गई तदबीर 
लो बन गई तक़दीर 
लो चल गई शमशीर 
सीरत है अदू-सोज़ 
सूरत नज़र-अफ़रोज़ 
दिल कैफ़ियत-अंदोज़ 
ग़ुस्से में जो आ जाए 
बिजली ही गिरा जाए 
और लुत्फ़ पर आए 
तो घर भी लुटा जाए 
परियों में है गुलफ़ाम 
राधा के लिए श्याम 
बलराम का भय्या 
मथुरा का बसय्या 
बिंद्रा में कन्हैय्या 
बन हो गए वीराँ 
बर्बाद गुलिस्ताँ 
सखियाँ हैं परेशाँ 
जमुना का किनारा 
सुनसान है सारा 
तूफ़ान हैं ख़ामोश 
मौजों में नहीं जोश 
लौ तुझ से लगी है 
हसरत ही यही है 
ऐ हिन्द के राजा 
इक बार फिर आ जा 
दुख दर्द मिटा जा 
अब्र और हवा से 
बुलबुल की सदा से 
फूलों की ज़िया से 
जादू-असरी गुम 
शोरीदा-सरी गुम 
हाँ तेरी जुदाई 
मथुरा को न भाई 
तू आए तो शान आए 
तू आए तो जान आए 
आना न अकेले 
हों साथ वो मेले 
सखियों के झमेले 

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