नयी दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बिहार और उत्तर प्रदेश के आश्रय गृहों में महिलाओं के बलात्कार और यौन शोषण की हाल की घटनाओं पर आज गंभीर चिंता व्यक्त की और सवाल किया कि इस तरह की भयावह घटनायें कब रुकेंगी। जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने अनाथालयों में बच्चों के यौन शोषण से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान ये टिप्पणियां कीं।
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के आश्रय गृह से 26 महिलाओं के कथित रूप से लापता होने की हाल की घटना का जिक्र करते हुये पीठ ने कहा, ‘‘हमें बतायें यह क्या हो रहा है।’’ जस्टिस लोकुर ने कहा, ‘‘कल, मैंने पढ़ा प्रतापगढ़ में इतनी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। यह सब कैसे रूकेगा।’’ प्रतापगढ़ ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के देवरिया और बिहार के मुजफ्फरपुर में भी गैर सरकारी संगठनों द्वारा संचालित आश्रय गृहों में महिलाओं और लड़कियों के बलात्कार और यौन शोषण के मामले हाल ही में सामने आये हैं।
इस मामले में न्याय मित्र की भूमिका निभा रहीं अधिवक्ता अपर्णा भट्ट ने कहा कि केन्द्र सरकार को देश में बच्चों की देखभाल करने वाली संस्थाओं की सूची और इनके सामाजिक आडिट की रिपोर्ट पेश करनी थी। पीठ ने इस पर टिप्पणी की, ‘‘भारत सरकार के पेश होने तक हम इसमें सबकुछ नहीं कर सकते।’’ पीठ ने सवाल किया कि इस मामले में केन्द्र की ओर से कोई वकील मौजूद क्यों नहीं है। कुछ समय बाद, गृह मंत्रालय और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से वकील न्यायालय में उपस्थित हुये।
पीठ ने इस पर आपत्ति जताते हुये जानना चाहा कि अलग-अलग मंत्रालयों के वकील क्यों पेश हो रहे हैं। पीठ ने कहा कि इतने सारे मंत्रालय हैं परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि इनके लिये अलग-अलग वकील पेश होगा। पीठ ने कहा, ‘‘इस मामले में सिर्फ एक महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की आवश्यकता है।’’ अपर्णा भट्ट ने पीठ से कहा कि शीर्ष अदालत ने पिछले साल अपने फैसले में केन्द्र से कहा था कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग से बच्चों की देखभाल करने वाली सारी संस्थाओं का सोशल आडिट कराया जाये।
उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने यह काम शुरू किया था परंतु कुछ राज्यों ने उसके साथ सहयोग करने से इंकार कर दिया। इसमे सहयोग नहीं करने वालों में बिहार और उत्तर प्रदेश भी शामिल थें।’’ पीठ ने जानना चाहा, ‘‘क्या इस आयोग ने प्रतापगढ़ और देवरिया में कोई सोशल आडिट किया था।’’ आयोग के वकील ने कहा कि उसे बिहार, उत्तर प्रदेश, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मिजोरम में सोशल आडिट नहीं करने दिया गया।
न्याय मित्र ने कहा, ‘‘यही तथ्य कि वे बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सोशल आडिट करने की अनुमति नहीं दे रहे हैं, दर्शाता है कि इसमें कुछ न कुछ गड़बड़ है।’’ उन्होंने कहा कि हाल ही में यौन शोषण और बलात्कार की घटनाओं के लिये सुर्खियों में आयी उत्तर प्रदेश की संस्था का पंजीकरण पिछले साल नवंबर में खत्म कर दिया गया था लेकिन इसके बावजूद वह चल रही थी।
उन्होंने कहा कि एक मैनेजमेन्ट इंफारमेशन साफ्टवेयर विकसित किया जाना था जिसमे बच्चों की देखभाल करने वाली संस्थाओं में बच्चों के विवरण के साथ ही उनमें मुहैया करायी जा रही सुविधाओं का पूरा ब्यौरा रखा जाना था लेकिन केन्द्र ने अभी तक कोई विवरण दाखिल नहीं किया है। बाल अधिकार संरक्षण आयोग के वकील ने कहा कि इन संस्थाओं और आश्रय गृहों के "रैपिड" सोशल आडिट का काम चल रहा है और अब तक ऐसे करीब 3000 गृहों का आडिट किया जा चुका है।
पीठ ने कहा, ‘‘ क्या रैपिड? आपको पता ही नहीं है कि इनमें क्या चल रहा है? यदि इन तीन हजार संस्थानों में बलात्कार जैसी घटनायें होती हैं तो क्या आप इनके लिये जिम्मेदार होंगे।’’ पीठ ने कहा, ‘‘हम एक बाद स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि सोशल आडिट की संख्या महत्वपूर्ण नहीं है। इन सोशल आडिट की गुणवत्ता ज्यादा महत्वपूर्ण है।’’
केन्द्र के वकील ने कहा कि वह न्यायालय के निर्देशानुसार सारी सूचना एक सप्ताह के भीतर पेश कर देंगे। उन्होंने कहा कि जहां तक बच्चों की देखरेख वाली संस्थाओं का संबंध है तो बिहार, तेलंगाना और केन्द्र शासित पुडुचेरी सहित कुछ राज्यों को इनका विवरण अभी केन्द्र को मुहैया कराना है। हालांकि, इनमें से कुछ राज्यों के वकीलों ने कहा कि वे यह जानकारी केन्द्र को उपलब्ध करा चुके हैं। पीठ ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को निर्देश दिया कि राज्यों से प्राप्त सारे आंकड़े और धन के उपयोग और कामकाज के आडिट की प्रक्रिया आदि का विवरण पेश किया जाये। इस मामले में अब 21 अगस्त को अगली सुनवाई होगी। शीर्ष अदालत ने पिछले साल पांच मई में अनाथालयों और बच्चों की देखरेख करने वाली संस्थाओं में रहने वाले बच्चों का आंकड़ा तैयार करने सहित अनेक निर्देश दिये थे।