नई दिल्ली: मजहबी रंग की बुनियाद पर, धोखे और फरेब के आधार पर पाकिस्तान ने 70 साल पहले कश्मीर को हड़पना चाहा। इसके लिए अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने दुनिया की आंखों में धूल झोंककर फौजी ताक़त का इस्तेमाल किया लेकिन हिंदू-मुसलमान के नाम पर कश्मीर को अपना बनाने की पाकिस्तानी चाल जंग के मैदान से कूटनीतिक बिसात तक चारों खाने चित हो गई। 1947 में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त अंग्रेज़ों ने रजवाडों-रियासतों को अधिकार दिया था कि वो अपनी किस्मत का फ़ैसला ख़ुद करें या फिर रायशुमारी करें। बंटवारे के वक्त या उसके बाद ज़्यादातर रियासतों ने हिंदुस्तान या पाकिस्तान में शामिल होने के क़रार पर दस्तख़त कर दिए लेकिन 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिलने के बाद कश्मीर के राजा हरि सिंह ने न हिंदुस्तान और न पाकिस्तान में मिलने का फ़ैसला किया।
चूंकि ब्रिटिश काल में कश्मीर भी अंग्रेज़ी हुकूमत का रियासत थी, लिहाज़ा उसे भी ये फ़ैसला करना था। फैसला लेने में इसी देरी का पाकिस्तान ने फ़ायदा उठाया। पाकिस्तान ने ताकत के दम पर कश्मीर को हड़पने की कोशिश की और पश्तुन समेत कश्मीर के कई कबीलाइयों के साथ पाकिस्तान की फौज मिल गई। कहने के लिए पाकिस्तान ने उसे स्थानीय कबायलियों की बगावत का नाम दिया लेकिन इस साज़िश के पीछे सीधे-सीधे पाकिस्तानी फौज थी। विद्रोहियों को हथियार पाकिस्तानी सेना मुहैया करा रही थी। इतना ही नहीं पाकिस्तानी सेना ख़ुद भी ऑपरेशन का हिस्सा थी।
ये वो दौर था जब कश्मीर के राजा की फौज पाकिस्तानी फौज के मुकाबले कुछ नहीं थी। पाकिस्तान के पास अगर हज़ारों फौजी थे तो कश्मीर रियासत के पास मुट्ठी भर सेना। एक देश पाकिस्तान और एक रियासत यानी कश्मीर के राजा की फौज का कहीं आपस में कोई मुकाबला नहीं था। ऐसे वक्त कश्मीर घाटी में पाकिस्तानी फ़ौज आगे बढ़ते-बढ़ते कश्मीर के मुजफ्फराबाद, मेंढर घाटी, भिंबर पुंछ गिलगिट और बारामुला से होते हुए उरी तक पहुंच गई। लेकिन इसी बीच कश्मीर के राजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को हिंदुस्तान में विलय के कागज़ात पर दस्तख़त कर दिए।
इधर हरि सिंह ने भारत में विलय के कागज़ात पर दस्तख़त किए और उधर भारतीय फौज को हवाई जहाज़ के ज़रिए श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतारा गया। इसके बाद भारतीय सेना ने कैसे कबिलाइयों और पाकिस्तानी फौज को खदेड़कर कश्मीर से बाहर किया अब वो इतिहास है लेकिन भारत में कश्मीर के विलय की कहानी में एक ट्विस्ट 4 दिनों की मोहलत का है। ये मोहलत कैसे मिली और इस मोहलत का क्या फ़ायदा हुआ आइए आपको बताते हैं...
- 1947 के अक्टूबर महीने में पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला बोला
- कश्मीर के राजा की फौज की कमान ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह के हाथों थी
- उस लड़ाई में पाकिस्तानी फौज कश्मीर पर कब्ज़ा करते-करते उरी पुल तक पहुंच गई
- ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह के पास पाकिस्तानी फौज का सामना करने के लिए असलहे और फौजी ताकत कम थी
- लिहाज़ा उन्होंने उरी को पुल को बारूद से उड़वा दिया
अगर पाकिस्तानी सेना उरी पुल पार कर जाती तो फिर श्रीनगर उनकी मुट्ठी में होता और अगर एक बार पाकिस्तानी सेना श्रीनगर पर कब्ज़ा कर लेती तो कश्मीर का इतिहास कुछ और होता। लेकिन उरी के पुल के तबाह होने से पाकिस्तानी सेना के कदम ठहर गए। इसी बीच कश्मीर के राजा को 4 दिन की मोहलत मिल गई और राजा हरि सिंह को सोचने का वक्त मिल गया कि कश्मीर का विलय किसके साथ किया जाए। इसी बीच 26 अक्टूबर को पाकिस्तानी सेना से जंग लड़ते-लड़ते ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह शहीद हुए और इसी दिन राजा हरि सिंह ने भारत में विलय के कागज़ात पर हस्ताक्षर कर दिए।
कहते हैं कि कश्मीर के विलय के कागजात दो पन्नों के थे। ये विलय पत्र चाहे जितने पन्नों का हों लेकिन एक सवाल बरकरार है कि आख़िर क्या वजह थी कि ब्रिटिश इंडिया के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने सभी रजवाड़ों को यह साफ़ कर दिया था कि उनके पास आज़ाद होने का कोई विकल्प नहीं था। ऐसे में राजा हरि सिंह क़रीब ढाई महीने तक हिंदुस्तान में कश्मीर के विलय को टालते क्यों रहे? क्या उन्होंने पाकिस्तान की चालबाज़ियों को समझने में चूक की?
भारतीय फौज ने श्रीनगर के पास पहुंच चुके कबिलाइयों और पाकिस्तानी फौज को बारामूला और उरी तक धकेल दिया। इसी बीच नौशेरा पर कब्ज़ा करने की पाकिस्तानी कोशिश भी धराशाई हो गई। कश्मीर में भारत और पाकिस्तान की फौज के बीच करीब सालभर तक यानी 1948 तक युद्ध होता रहा। इस बीच जब कश्मीर में युद्ध विराम हुआ तो जहां तक जिसकी सेना थी, जो इलाक़ा जिसके कब्ज़े में था आज की तारीख़ में कश्मीर का वो इलाक़ा भारत और पाकिस्तान के बीच है। कश्मीर में दोनों मुल्कों को अलग करने वाली लकीर ही लाइन ऑफ कंट्रोल है।