हाल में विश्व बैंक ने बताया है कि फ़्रांस को पछाड़ते हुए भारत दुनिया की छठी बड़ी अर्थव्यस्था बन गई है। वित्त वर्ष- 2017 में भारत का जीडीपी यानि सकल घरेलू उत्पाद 2.59 लाख करोड़ डॉलर था,जबकि फ़्रांस का जीडीपी 2.58 लाख करोड़ डॉलर था। भारत के आर्थिक रुप से मज़बूत होने की ये ख़बर ऐसे वक़्त की आई है,जब मोदी सरकार नोटबन्दी और जीएसटी जैसे कदमों से विपक्षी दलों और अर्थशास्त्रियों के निशाने पर थी। कहा जा रहा था कि इन कदमों से भारत की अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी। लेकिन हाल में देश के आर्थिक समृद्धि की ख़बर को भारत सरकार अपनी बड़ी सफ़लता के रुप में पेश रही है। पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर तमाम मंत्रीगण मौका-बे-मौका बोलने से नहीं चूक रहे हैं। क्योंकि लोकसभा चुनाव क़रीब आ गया है। पीएम नरेंद्र मोदी ने संसद में भी ज़ोर देकर ये बता कही कि हम दुनिया की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं। ये हमारी सरकार की नीतियों की सफ़लता है। इससे पहले वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी अपने लेख के माध्यम से जीडीपी में वृद्धि को अपनी सरकार की कामयाबी बताया।
अब यहां सवाल ये है कि फ़्रांस की तुलना में यदि देश आर्थिक रूप से सशक्त हुआ है तो देशवासियों की आर्थिक स्थिति पर इसका कैसा प्रभाव पड़ा है? इसको भी तो वित्तमंत्री से लेकर उन तमाम मंत्रियों को,बिल्कुल उसी रुप में बताना चाहिए था,जिस रूप में ये बता रहे हैं कि भारत दुनिया की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है। शायद नहीं बताने के पीछे जो कारण हो सकता है, वो इस प्रकार है- देशवासियों की, सांख्यिकी एंवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अनुसार, साल 2014 में भारत की प्रति व्यक्ति आय क़रीब 88’538 रुपये थी,जो 2018 में बढ़कर क़रीब 1’12’835 रुपये होने का अनुमान है,यानि प्रतिदिन एक व्यक्ति की आय क़रीब 309 रुपये। इसी दौर की एक सच ये भी है कि 29 करोड़ लोगों की आय प्रतिदिन 30 रुपये से कम है। वहीं फ़्रांस की प्रति व्यक्ति आय वर्तमान में भारत के प्रति व्यक्ति आय से 20 गुणा बताई जा रही है। प्रति व्यक्ति आय को इस रूप में बताने के पीछे दो मक़सद है। पहला ये है कि डॉलर या ट्रिलियन में उलझना ना पड़े। और दूसरा ये है कि दोनों देशों के प्रति व्यक्ति आय को लेकर मीडिया रिपोर्ट में काफ़ी भिन्नता है।
प्रति व्यक्ति आय निकालने का फ़ॉर्मूला होता है- देश की कुल आबादी से जीडीपी को भाग देने पर जो संख्या प्राप्त होती है, वही प्रति व्यक्ति आय होता है। दोनों देशों के प्रति व्यक्ति आय में ज़्यादा अन्तर की मुख्य वजह जानकार जनसंख्या को बता रहे है। भारत का क्षेत्रफल फ़्रांस से 5 गुना और आबादी 18 गुना अधिक है यानि राजस्थान के बराबर। भारत की आबादी पूरे यूरोप की आबादी से दो गुना अधिक है।
दुनियाभर में अर्थव्यवस्था के इंडिकेटर जीडीपी पर अर्थशास्त्र के जानकार अलग- अलग तरीक़े से सवाल उठा रहे हैं, लेकिन भारत सहित दुनियाभर में सरकारें जीडीपी में बढ़ोतरी को अपनी क़ामयाबी बताती है और जश्न मनाती है। मई 2016 में ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने जीडीपी पर विस्तार से एक लेख छापी, जिसमें लिखा कि ‘GDP Growth became a target for politicians and a scorecard by which they were judge by voters.’
जीडीपी को आलोचकों का कहना है कि यह केवल उपभोग,निवेश,सरकारी ख़र्च और कुल शुद्ध निर्यात के योग के अलावा कुछ नहीं है। जब जीडीपी के आंकड़ों में सामाजिक विकास,मानव पूंजी और जीवनस्तर जैसी प्रमुख बातों को शामिल नहीं किया जाता है तो जीडीपी किसी देश के आर्थिक विकास का पैमाना कैसे हो सकता है? वह भी तब जब पूरी दुनिया समावेशी विकास की बात कर रही है।
आईएमएफ़ यानि इंटरनेशनल मॉनिटरी फ़ंड ने जीडीपी पर सवाल उठाते हुए अपनी रिपोर्ट नियोलिबरेलिज्म: ओवर सोल्ड? में कहा कि यह मॉडल आर्थिक विकास को मापने में पूरी तरह फ़ेल हो चुका है। इसने असमानता में और इज़ाफ़ा किया है। इसलिए इससे लगाव कम किया जाना चाहिए। जीडीपी इस्तेमाल में नहीं रहेगी, तभी असली तस्वीर उभरकर आएगी।
यूएस अर्थशास्त्री एरिक जेंसी ने कहा कि “ हम आर्थिक रूप से क्या कर रहे हैं,यह मापने के लिए जीडीपी एक बेवकूफ़ी भरा इंडिकेटर है। यह अर्थव्यवस्था में महज मौद्रिक लेन-देन को ही मापता है। धन कहां ख़र्च हो रहा है,इसका उससे कोई लेना-देना नहीं है। जीडीपी हमारी आर्थिक भलाई की भी परवाह नहीं करता है।”इसलिए एजेंसी जीडीपी की बजाय जीपीआई यानि जेनुइन प्रोगेस इंडिकेटर पर ज़ोर देते हैं। भारत के शीर्ष सांख्यिकी विशेषज्ञ टीसीए अनन्त का भी कहना है कि जीडीपी की जानकारी अधूरी है। इससे बेहतर है कि इसकी कोई सूचना ही ना हो।
ब्लॉग लेखक आदित्य शुभम देश के अग्रणी न्यूज चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं, इस ब्लॉग में लेखक ने अपने व्यक्तिगत विचारों को रखा है। Khabarindiatv.com इसके लिए उत्तरदायी नहीं है।