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CBI बनाम CBI: सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा

केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने बृहस्पतिवार को उच्चतम न्यायालय से कहा कि असाधारण स्थिति के लिये असाधारण उपाय जरूरी है

Edited by: Bhasha
Published : December 06, 2018 15:44 IST
Supreme court reserves its order on CBI Vs CBI case
Supreme court reserves its order on CBI Vs CBI case

नयी दिल्लीउच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को सीबीआई विवाद पर सुनवाई के बाद निदेशक आलोक वर्मा की शक्तियां छीनने संबंधी केन्द्र के फैसले के खिलाफ वर्मा और एनजीओ कॉमन कॉज की याचिकाओं पर सुनवाई पूरी की, फैसला सुरक्षित रखा।

इससे पहले केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने बृहस्पतिवार को उच्चतम न्यायालय से कहा कि असाधारण स्थिति के लिये असाधारण उपाय जरूरी है। सतर्कता आयोग ने आलोक वर्मा को केन्द्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक के अधिकारों से वंचित कर अवकाश पर भेजने के केन्द्र के फैसले के खिलाफ उनकी याचिका पर सुनवाई के दौरान यह दलील दी। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति केएम जोसफ की पीठ के समक्ष सीवीसी की ओर से अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने यह दलील दी। उन्होंने शीर्ष अदालत के फैसलों और सीबीआई को संचालित करने वाले कानूनों का जिक्र किया और कहा कि (सीबीआई पर) आयोग की निगरानी के दायरे में इससे जुड़ी ‘‘आश्चर्यजनक और असाधारण परिस्थितियां’’ भी आती हैं। 

इस पर पीठ ने कहा कि अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने उसे बताया था कि जिन परिस्थितियों में ये हालात पैदा हुए उनकी शुरूआत जुलाई में ही हो गई थी। पीठ ने कहा, ‘‘सरकार की कार्रवाई के पीछे की भावना संस्थान के हित में होनी चाहिए।’’ 

शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसा नहीं है कि सीबीआई निदेशक और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच झगड़ा रातोंरात सामने आया जिसकी वजह से सरकार को चयन समिति से परामर्श के बगैर ही निदेशक के अधिकार वापस लेने को विवश होना पड़ा हो। उसने कहा कि सरकार को ‘निष्पक्षता’ रखनी होगी और उसे सीबीआई निदेशक से अधिकार वापस लेने से पहले चयन समिति की सलाह लेने में क्या मुश्किल थी। 

प्रधान न्यायाधीश ने सीवीसी से यह भी पूछा कि किस वजह से उन्हें यह कार्रवाई करनी पड़ी क्योंकि यह सब रातोंरात नहीं हुआ। मेहता ने कहा कि सीबीआई के शीर्ष अधिकारी मामलों की जांच करने के बजाय एक दूसरे के खिलाफ मामलों की तफ्तीश कर रहे थे। उन्होंने कहा कि सीवीसी के अधिकार क्षेत्र में जांच करना शामिल है, अन्यथा वह कर्तव्य में लापरवाही की दोषी होगी। अगर उसने कार्रवाई नहीं की होती तो राष्ट्रपति और उच्चतम न्यायालय के प्रति वह जवाबदेह होता। 

उन्होंने कहा कि सरकार ने सीबीआई निदेशक के खिलाफ जांच के लिये मामला उसके पास भेजा था। मेहता ने कहा, ‘‘सीवीसी ने जांच शुरू की लेकिन वर्मा ने महीनों तक दस्तावेज ही नहीं दिये।’’ राकेश अस्थाना की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने शीर्ष अदालत से कहा कि इस मामले में वह तो व्हिसिल-ब्लोअर थे परंतु सरकार ने उनके साथ भी एक समान व्यवहार किया। उन्होंने कहा कि सरकार को वर्मा के खिलाफ केन्द्रीय सतर्कता आयोग को जांच को अंतिम नतीजे तक ले जाना चाहिए। 

आलोक वर्मा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरिमन ने कहा कि केन्द्र के आदेश ने उनके सारे अधिकार ले लिये। उन्होंने कहा कि सामान्य उपबंध कानून की धारा 16 भी इस बिन्दु के बारे में है कि सीबीआई निदेशक जैसे अधिकारी को कौन हटा सकता है परंतु यह अधिकारी को उसके अधिकारों से वंचित करने के बारे में नहीं है। 

आलोक वर्मा के अभी भी जांच एजेन्सी का निदेशक होने संबंधी अटॉर्नी जनरल की दलील के संदर्भ में नरिमन ने कहा, ‘‘अधिकारी के पास निदेशक के अधिकार होने चाहिए। दो साल के कार्यकाल का यह मतलब नहीं कि निदेशक बगैर किसी अधिकार के सिर्फ पद के साथ विजिटिंग कार्ड रख सकता है।’’ इस पर न्यायालय ने नरिमन से पूछा कि क्या वह किसी और की नियुक्ति कर सकती है तो नरिमन ने कहा, ‘‘हां।’’ न्यायालय केन्द्र के आदेश को चुनौती देने वाली, आलोक वर्मा की याचिका के साथ ही राकेश अस्थाना सहित जांच ब्यूरो के विभिन्न अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की शीर्ष अदालत की निगरानी में विशेष जांच दल से जांच के लिये गैर सरकारी संगठन ‘कॉमन कॉज’ की याचिका और आवेदनों पर सुनवाई कर रहा था। 

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