नई दिल्ली: समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखने वाली IPC की धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त करने वाले सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 158 साल पुराने इस प्रावधान के इतिहास का जिक्र किया जिसे 1533 में ब्रिटेन के राजा हेनरी अष्टम के शासनकाल में बनाए गए कानून से लिया गया। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविल्कर, जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की 5 जजों की संविधान पीठ ने गुरुवार को अपने फैसले में कहा कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 ने समानता और गरिमा के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन किया है।
500 साल पुराने कानून पर आधारित थी धारा 377
जस्टिस नरीमन और जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने अलग लेकिन सहमति वाले फैसले में, धारा के विकास के बारे में विस्तार से बताया है। जस्टिस नरीमन ने कहा कि धारा 377 ब्रिटेन के बगरी अधिनियम, 1533 पर आधारित है, जिसे तत्कालीन राजा हेनरी अष्टम ने बनाया था। बगरी अधिनियम के जरिये मानव जाति या जानवर के साथ बगरी (गुदा मैथुन) के ‘निंदनीय और घृणित अपराध’ को प्रतिबंधित किया गया था। जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि ‘बगरी’ शब्द पुराने फ्रांसीसी शब्द ‘बुग्रे’ से लिया गया है और इसका मतलब गुदा मैथुन होता है।
300 साल तक रहा मौत की सजा का प्रावधान
जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा, ‘हेनरी अष्टम द्वारा बनाया गए बगरी अधिनियम, 1533 में बगरी के लिए मौत की सजा का प्रावधान था और यह कानून तकरीबन 300 साल तक रहा। उसके बाद इसे रद्द कर दिया गया और उसकी जगह व्यक्ति के खिलाफ अपराध अधिनियम, 1828 बनाया गया। बगरी, हालांकि IPC बनाए जाने के एक साल बाद यानि 1861 तक इंग्लैंड में एक ऐसा अपराध बना रहा, जिसके लिए मौत की सजा का प्रावधान था।’ उन्होंने कहा कि धारा 377 को संविधान के अनुच्छेद 372 (1) के तहत स्वतंत्र भारत में जारी रखने की इजाजत दी गई। अनुच्छेद 372 (1) के अनुसार, ‘संविधान के लागू होने से पहले से प्रभावी सभी कानून तब तक जारी रहेंगे जब तक कि उन्हें बदल नहीं दिया जाता या निरस्त नहीं कर दिया जाता।’
94 साल में 8921 लोग पाए गए दोषी
जस्टिस नरीमन ने कहा कि इंग्लैंड और वेल्स में ‘अप्राकृतिक यौनाचार, गंभीर अश्लीलता या अन्य अप्राकृतिक आचरणों’ के लिए 1806 और 1900 के बीच 8921 लोगों को दोषी पाया गया। औसतन, इस अवधि के दौरान प्रति वर्ष नब्बे पुरुषों को समलैंगिक अपराधों के लिए दोषी पाया गया। उन्होंने कहा, ‘दोषी ठहराए गए ज्यादातर लोगों को कैद की सजा दी गई लेकिन 1806 और 1861 के बीच 404 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी। 56 लोगों को फांसी दी गई और शेष को या तो कैद की सजा दी गई या उन्हें शेष जीवन के लिए ऑस्ट्रेलिया भेज दिया गया।’ 1861 में अप्राकृतिक यौनाचार के अपराध के लिये मौत की सजा के प्रावधान को खत्म कर दिया गया था।
मैकॉले का इस कानून से है खास कनेक्शन
देश में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का जिक्र करते हुए जस्टिस नरीमन ने कहा कि तत्कालीन संसद ने भारतीय विधि आयोग की स्थापना की थी और 1833 में, थॉमस बाबिंगटन मैकॉले को इसका प्रमुख नियुक्त किया गया था। जस्टिस नरीमन ने लिखा कि लॉर्ड मैकॉले का मसौदा आखिरकार बनाई गई धारा 377 से काफी अलग था। उन्होंने लिखा कि यहां तक कि लॉर्ड मैकॉले ने भी सहमति के साथ किए जाने पर ‘अप्राकृतिक यौनाचार’ के अपराध के लिए कम सजा का प्रावधान रखा था। जस्टिस नरीमन ने अपने 96 पन्नों के फैसले में कहा कि मसौदे की कई समीक्षाओं के बाद आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मसौदा दंड संहिता पर्याप्त रूप से पूर्ण है, और मामूली संशोधन के साथ कानून बनाए जाने के लिए उपयुक्त है।
और इस तरहा IPC के अंतर्गत आ गई धारा 377
उन्होंने लिखा, ‘दंड संहिता का संशोधित संस्करण तब 1851 में कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों और कलकत्ता में सदर कोर्ट के न्यायाधीशों को भेजा गया।’ जस्टिस नरीमन ने लिखा है कि दंड संहिता की समीक्षा के लिये बेथून (भारतीय विधान परिषद के विधायी सदस्य), कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बुलर, जस्टिस कोल्विल, सर बार्न्स पीकॉक को लेकर एक परिषद का गठन किया गया। जस्टिस नरीमन ने लिखा कि पीकॉक कमेटी ने अंततः कानून बनाने के लिए धारा 377 के समतुल्य मसौदे को भेजा। 25 वर्ष के पुनरीक्षण के बाद, 1 जनवरी, 1862 को IPC लागू हो गया। IPC ब्रिटिश साम्राज्य में पहली संहिताबद्ध अपराध संहिता थी।