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एससी-एसटी समुदाय के लोगों को खतरनाक जगहों में मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसचित जनजाति (एसटी) समुदाय के सदस्य अब भी समानता एवं नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उन्हें ‘‘सीवर चैम्बर’’ में मरने के लिए छोड़ दिया गया है, जो ‘मौत के कुएं’ जैसे हैं।

Reported by: Bhasha
Published : October 01, 2019 23:30 IST
Supreme court
Supreme court

नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसचित जनजाति (एसटी) समुदाय के सदस्य अब भी समानता एवं नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उन्हें ‘‘सीवर चैम्बर’’ में मरने के लिए छोड़ दिया गया है, जो ‘मौत के कुएं’ जैसे हैं। न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह भी कहा एससी/एसटी समुदाय के सदस्यों से झूठा या धोखेबाज की तरह बर्ताव नहीं किया जा सकता और पहले से ही यह नहीं मान लिया जा सकता कि वे मौद्रिक लाभ पाने के लिए या बदला लेने के लिए झूठी प्राथमिकी दर्ज कराएंगे। 

न्यायालय ने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के इन आंकड़ों को सतर्क करने वाला कहा जिनके मुताबिक 2016 में एससी/एसटी (प्रताड़ना रोकथाम) कानून के तहत 47,000 से अधिक मामले दर्ज किये गये। पीठ ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि यह कानून के प्रावधानों के दुरूपयोग के नतीजे हैं। न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि भारतीय समाज अब तक ‘नियति से मिलन’ के साथ प्रयोग कर रहा है क्योंकि आजादी के 70 साल बाद भी एससी/एसटी समुदाय के सदस्य भेदभाव का सामना कर रहे हैं। शीर्ष न्यायालय ने पाया कि नागरिक अधिकारों के मामलों में एससी/एसटी समुदाय के सदस्यों से अब भी भेदभाव किया जाता है। 

न्यायालय ने कहा कि ये लोग अपमान एवं अपशब्द झेल रहे हैं और सदियों से उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत रखा गया है। पीठ ने कहा, ‘‘ वे खेतों में मेहनत करते हैं, बंधुआ या जबरन, जिसका काफी कोशिशों के बावजूद भी उन्मूलन नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्रों में महिलाओं से गरिमा एवं सम्मान के साथ व्यवहार नहीं किया जाता तथा विभिन्न रूपों में उनका यौन उत्पीड़न किया जाता है। हम चैम्बरों में जहरीले गैसों के चलते सीवर (की सफाई करने वाले) श्रमिकों को मरते देखते हैं क्योंकि उन्हें सीवर चैम्बर में प्रवेश के लिए मास्क या ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं मुहैया कराया जा रहा। ये मौत के कुएं के समान हैं।’’ 

पीठ के सदस्यों में न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति बी आर गवई भी शामिल हैं। पीठ ने 51 पृष्ठों के अपने फैसले में यह टिप्पणी की। जिसमें पीठ ने शीर्ष न्यायालय के 20 मार्च 2018 के फैसले में दिये निर्देश को याद किया जिसने एससी/एसटी अधिनियम के तहत गिरफ्तारी के प्रावधानों को वस्तुत: कमजोर कर दिया था। न्यायालय ने अनुसूचित जाति और अनूसचित जनजाति (उत्पीड़न से संरक्षण) कानून के तहत गिरफ्तारी के प्रावधानों को हल्का करने संबंधी शीर्ष अदालत के 20 मार्च, 2018 के फैसले में दिये गये निर्देश मंगलवार को वापस ले लिये। 

न्यायालय ने मौजूदा हालात का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘हम यह टिप्पणी करने के लिए मजबूर हैं कि एससी/एसटी अब भी देश के विभिन्न इलाकों में समानता और नागरिक अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ’’ पीठ ने कहा, ‘‘आरक्षण के बावजूद भी विकास का फल एससी/एसटी समुदायों तक नहीं पहुंचा है और बहुत हद तक वे समाज के असमान एवं जोखिमग्रस्त तबके बने हुए हैं।’’ न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 का जिक्र करते हुए कहा कि जीवन का अधिकार में गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है। 

पीठ ने कहा, ‘‘मूलभूत मानव गरिमा का यह अर्थ है कि सभी लोगों से सभी मायने में समान मनुष्य के रूप में व्यवहार किया जाए और किसी के साथ अछूत और शोषण की वस्तु जैसा व्यवहार नहीं किया जाए । ’’ न्यायालय ने कहा, ‘‘ इसका यह मतलब भी है कि वे अपनी जाति को लेकर संभ्रांत वर्ग की सेवा के लिए जन्म नहीं लेते हैं। ’’ न्यायालय ने कहा कि जातिगत भेदभाव ने समाज में गहरी जड़ें जमा रखी हैं। हालांकि, इसे उखाड़ फेंकने के लिए सतत कोशिशें की गई हैं पर देश को वास्तविक लक्ष्य प्राप्त करना अब भी बाकी है। हाथ से मैला हटाने और एससी/एसटी लोगों के ऐसे कार्य करने की स्थिति को गंभीरता से लेते हुए न्यायालय ने कहा कि दुनिया में कहीं भी लोगों को मरने के लिए गैस चैम्बर में नहीं भेजा जाता। 

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