नई दिल्ली। केंद्र ने सोमवार को उच्चतम न्यायालय से अनुरोध किया कि अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के समृद्ध तबके (क्रीमी लेयर) को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने संबंधी शीर्ष अदालत का 2018 का फैसला पुनर्विचार के लिये सात सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपा जाए। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 2018 में अपने फैसले में कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समृद्ध लोग यानी क्रीमी लेयर को कॉलेज में दाखिले तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता।
शीर्ष अदालत ने जरनैल सिंह प्रकरण में कहा था कि संवैधानिक अदालतें आरक्षण व्यवस्था पर अमल के दौरान समता का सिद्धांत लागू करके आरक्षण के लाभ से ऐसे समूहों या उप-समूहों के समृद्ध तबके को शामिल नहीं करके अपने अधिकार क्षेत्र में होंगी।
प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्य कांत की पीठ ने केन्द्र की ओर से अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल के इस कथन का संज्ञान लिया कि क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने का सिद्धांत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं किया जा सकता। वेणुगोपाल ने कहा, ‘‘यह बहुत ही भावनात्मक मुद्दा है। मैं चाहता हूं कि यह पहलू सात न्यायाधीशों की वृहद पीठ को सौंपा जाये क्योंकि क्रीमी लेयर का सिद्धांत इन श्रेणियों पर लागू नहीं किया जा सकता।’’
यह सिद्धांत आरक्षण का लाभ नहीं देने के लिये वंचित तबकों के समृद्ध लोगों के बीच विभेद करता है और इस समय यह इन्दिरा साहनी प्रकरण में नौ सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले के आलोक में पिछड़े वर्गों पर लागू होता है। समता आन्दोलन समिति की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायण ने अटार्नी जनरल के इस कथन का विरोध किया।
पीठ ने इस पर दो सप्ताह बाद सुनवाई की तारीख निर्धारित करते हुये आरक्षण नीति में बदलाव के लिये राष्ट्रीय समन्वय समिति के अध्यक्ष ओ पी शुक्ला और पूर्व आईएएस अधिकारी एम एल श्रवण की याचिका पर केन्द्र और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को नोटिस जारी किए।
इस जनहित याचिका में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के जरूरतमंद और पात्रता रखने वाले सदस्यों की पहचान करने और लगातार यह लाभ प्राप्त कर रहे लोगों को इससे अलग करके उचित अनुपात में आरक्षण का लाभ देने का अनुरोध किया गया है। याचिका में कहा गया है कि सरकार ने अभी तक अनुसूचित जाति और जनजातियों के समुदायों में क्रीमी लेयर की पहचान नहीं की है जिसका नतीजा यह हुआ है कि इन्हीं समूहों के वंचित सदस्यों की कीमत पर इनके समृद्ध लोग लगातार आरक्षण का लाभ प्राप्त करते आ रहे हैं।
याचिका के अनुसार उनका मामला सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिये अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिये आरक्षण तक ही सीमित है। शीर्ष अदालत ने पिछले साल सितंबर में अपने फैसले में अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों के लिये सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के मामले में आरक्षण देने का मार्ग प्रशस्त किया था। न्यायालय ने कहा था कि राज्यों के लिये इन समुदायों में पिछड़ेपन को दर्शाने वाले आंकड़े एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है।