नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति/जनजाति कानून के तहत तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान को नरम करने संबंधी निर्णय पर पुनर्विचार का अनुरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को एक याचिका दायर की। हालांकि कोर्ट ने इस याचिका पर तत्काल सुनवाई से इनकार कर दिया है। सरकार ने अपनी पुनर्विचार याचिका में कहा है कि उसके 20 मार्च के फैसले से अनुसूचित जाति/जनजातियों के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त अधिकार का हनन होता है। सरकार ने कोर्ट से इस कानून के प्रावधानों को बहाल करने का अनुरोध किया है।
इस बीच, कोर्ट ने 20 मार्च के फैसले पर रोक लगाने और इस पर पुनर्विचार के लिए अनुसूचित जाति/जनजातियों के संगठनों के अखिल भारतीय महासंघ की याचिका पर शीघ्र सुनवाई करने से सोमवार को इंकार कर दिया। यह करीब 150 कर्मचारी समूहों का महासंघ है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए. एम. खानविलकर और जस्टिस धनन्जय वाई. चन्द्रचूड़ की 3 सदस्यीय खंडपीठ ने कहा कि इस याचिका पर उचित समय पर ही विचार किया जाएगा। महासंघ ने याचिका में कहा है कि इस मुद्दे को लेकर देश में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और इसमे अनेक व्यक्तियों की जान गई है। अत: कोर्ट को याचिका पर शीघ्र सुनवाई करनी चाहिए।
महासंघ की ओर से वकील मनोज गौरकेला ने कहा कि शीर्ष अदालत का 20 मार्च का फैसला अनुचित है ओर इस पर रोक लगाई जानी चाहिए। साथ ही उन्होंने इस याचिका पर 5 सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा विचार करने का भी अनुरोध किया। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि ‘कई मौकों पर’ निर्दोष नागिरकों को आरोपी बनाया जा रहा है ओर लोक सेवक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में भयभीत हैं, यह कानून बनाने समय विधायिका की ऐसी कोई मंशा नहीं थी।
कोर्ट ने कहा था कि अग्रिम जमानत को इस प्रावधान से बाहर रखने को ‘सही मामलों’ तक सीमित करने और ऐसे प्रकरणों में जहां पहली नजर में कोई मामला नहीं बनता है, उन्हें इसके दायरे से बाहर रखे बगैर निर्दोष व्यक्ति को कोई संरक्षण प्राप्त नहीं होगा। कोर्ट ने कहा था कि इस कानून के तहत गिरफ्तारी के प्रावधान के दुरूपयोग के मद्देनजर लोकसेवक की गिरफ्तारी सिर्फ उसकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकार और गैर लोक सेवक के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की मंजूरी से ही की जा सकती है।