उत्तराखंड के जंगल धधक रहे हैं...हालत कुछ ऐसी है कि पर्यटकों का एक दल नैनीताल के भवाली से ही वापस लौट गया क्योंकि आग का धुआं पहाड़ों को अपने आगोश में लिए हुए हैं, जिससे पहाड़ों की फिजा खराब हुई है और अस्थमा पीड़ितों को सांस लेने में भी दिक्कत हो रही है। पहाड़ों में आम तौर पर प्रदूषण की बात नहीं होती लेकिन धुएं का गुबार हैरान करने वाला है और प्रदूषण पर नए सवाल खड़ा कर रहा है।
जंगल की आग कुमाऊं और गढ़वाल के पहाड़ी इलाकों में फैली है। दोनों मंडलों की करीब 1000 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन में आग लगी है। संरक्षित वन क्षेत्रों, राष्ट्रीय पार्कों और वन्यजीव अभ्यारण्य भी आग की चपेट में हैं। पहाड़ों की ढलान इस दावानल के लिए मुफीद होती है और बड़ी आसानी से आग तेजी से फैलती है इसीलिए इस आग पर काबू पाना मुश्किल हो रहा है और अब ये आग मध्य हिमालय क्षेत्र के घने जंगलों की तरफ बढ़ने लगी है।
पहाड़ों के हरे भरे जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण है चीड़ का पेड़...उत्तराखंड के जंगलों में करीब साठ फीसदी हिस्से में चीड़ के पेड़ हैं। पहाड़ों के लिए ये पेड़ किसी अभिशाप से कम नहीं। चीड़ का पेड़ बेहद जल्दी आग पकड़ता है और चीड़ की पत्तियां यानी पिरूल, किसी पेट्रोलियम की भूमिका अदा करती है। चीड़ के जंगलों में फैली यही सूखी पिरूल इन दिनों प्रचंड रूप से धधक रही है। पहले से संकट में घिरे जंगली जानवरों का अस्तित्व खतरे में आ गया है। जंगली वनस्पति, बेशकीमती जड़ी-बूटी स्वाहा हो चुकी है...पानी के स्रोत प्रभावित हो रहे हैं।
मध्य हिमालयी क्षेत्रों में जिस शान से चीड़ के पेड़ सिर उठाए हुए हैं, दरअसल वो उसके असल हकदार नहीं हैं। देवदार, बांज, बुरांश, पय्या जैसे वृक्ष पहाड़ों के घरेलू वृक्ष हैं...लेकिन ब्रिटिशकाल में बड़े पैमाने पर इन पेड़ों को काटा गया और चीड़ के पेड़ों की खेप लगा दी गई। जंगलों में पेड़ों का रुपांतरण पश्चिमी औद्योगिक क्रांति के दौरान किया गया। उस दौर में तेज विकास के लिए ऐसी लकड़ी की जरूरत थी जिसके पेड़ जल्दी उगें साथ ही जो टिकाऊ भी हो। चीड़ के पेड़ से आला दर्जे की इमारती लकड़ी मिलती है और ये सबसे अच्छा जलावन भी है..इन सभी लक्ष्यों को चीड़ का पेड़ पूरा करता है लेकिन अब यही पेड़ जी का जंजाल बन गया है।
चीड़ जमीन से बड़ी तादात में पानी खींचता है, इसीलिए चीड़ के जंगल सूखे होते हैं और पानी के प्राकृतिक स्रोत चीड़ के जंगलों में पनप ही नहीं पाते...इसकी तुलना में देवदार और बांज के जंगल अपेक्षाकृत घने होते हैं। इन पेड़ों में पानी को जड़ों में जमाए रखने की असाधारण क्षमता होती है। देवदार और बांज के जंगलों में पानी के असीमित स्रोत इसलिए भी पनपते हैं क्योंकि चौड़ी पत्तियां होने की वजह से धूप जमीन तक नहीं आ पाती और जमीन का तापमान हर वक्त कम बना रहता है। देवदार और बांज के जंगल नम होने की वजह से यहां आग लगने की खबरें नगण्य हैं।
उत्तराखंड की आग सौ फीसदी मानव निर्मित है। खुराफाती दिमाग के लोग ऐसी आग भड़काने के बड़े एजेंट हैं। कुछ इलाकों में स्थानीय ग्रामीण अच्छी घास के लालच में जंगल में आग लगा देते हैं। पहाड़ी इलाकों में अंदर तक घुसा टिंबर माफिया भी ऐसी आग लगाता है। पाया ये भी गया है कि कई जगहों पर खुद वन विभाग से जुड़े लोग आग लगा देते हैं, ऐसा आग बुझाने के बजट को खर्च करने और फंड के वारे न्यारे करने के लिए किया जाता है। जंगलों की आग की वजह पलायन भी है...पहाड़ी इलाके तेजी से खाली हो रहे हैं। चीड़ की जिन पत्तियों का इस्तेमाल लोग अपने घरों में मवेशियों के लिए करते थे, अब उन पत्तियों का कोई इस्तेमाल नहीं है...जो लोग पहाड़ों में रह भी रहे हैं, खेती छोड़ने की वजह से उनके लिए चीड़ की पत्तियों का कोई महत्व नहीं रह जाता..ऐसे में चीड़ की पत्तियां जंगलों में जलने के लिए पड़ी रहती हैं।
उत्तराखंड के जंगलों की आग हर साल का स्थाई लक्षण बन गया है। हर साल गर्मियों में जंगल लपटों में घिर जाते हैं लेकिन इस बार समस्या ज्यादा विकराल है। इससे सबसे ज्यादा नुकसान प्रकृति का है। प्रकृति के नुकसान का अर्थ है स्थानीय निवासियों को दिक्कत और पर्यावरण की चुनौतियां...इन दोनों समस्याओं में जंगल की आग घी का काम कर रही है।
(इस ब्लॉग के लेखक संजय बिष्ट पत्रकार हैं और देश के नंबर वन हिंदी न्यूज चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं)