50 खानसामों ने 918 किलोग्राम खिचड़ी पकाई और नया वर्ल्ड रिकॉर्ड बन गया..इस हाईप्रोफाइल खिचड़ी में योगगुरु रामदेव ने तड़का लगाया। देश के चोटी के शेफ संजीव कपूर की पकाई ये खिचड़ी हाईप्रोफाइल थी, ग्लैमरस थी लेकिन जो खिचड़ी नौजवान, छात्र, नई नौकरीवाले प्रोफेशनल, घनघोर अकेलों के घर में पकती है वो खिचड़ी न ही ग्लैमरस होती है और न ही तड़केदार लेकिन इस खिचड़ी के कम समय में बनने और भरपूर पेट भरने की गारंटी होती है।
घर छोड़ने के बाद दिल्ली के बीहड़ों में भटकते हुए जिस चीज़ ने सहारा दिया वो खिचड़ी ही थी..मेरा ये मानना है कि अगर खिचड़ी जैसी कोई चीज नहीं होती तो अकेले रह रहे युवा भूखे मर जाते..हालांकि ये भी तथ्य है कि खाने से लगाव न रखने वाला और आलसी इंसान कभी न कभी खिचड़ी की खोज कर ही डालता। यानी इस बात की संभावना ज्यादा है कि कोई आलसी, नितांत अकेला आदमी खिचड़ी का आविष्कारक होगा। पता नहीं उस पहले खिचड़ी खावक ने इस बात की कल्पना भी की होगी कि उसका शाहकार इंसानी सभ्यता में मील का पत्थर साबित होगा।
मैंने तकरीबन सात साल दिन और रात, खिचड़ी खाकर दिन बिताए हैं... इसकी सबसे बड़ी वजह यही थी कि मुझे न ही चावल बनाना आता था और न ही चपाती। मैं इतना आलसी और इतना कामचोर था कि मैंने कुकिंग सीखने की कोशिश ही नहीं की। आखिरकार मुझ जैसे को खिचड़ी को ही गले लगाना था..वैसे मुझे खिचड़ी बनानी भी नहीं आती थी लेकिन अल्प खिचड़ी ज्ञान कला ने ही मुझे खिचड़ी विशेषज्ञ बना दिया।
मेरी पहली खिचड़ी अधूरी रह गई...उसकी वजह भी सुनिए.. बाहर का खा-खाकर जब पैसे खर्च हो गए तो मैंने घर पर ही खाना बनाने का साहसी फैसला लिया। दाल, चावल, अरहर, मलका, मूंग हर तरह की दाल ले आया। मैंने अपनी औकात के हिसाब से ये तय किया था कि मैं कभी भी चावल, दाल, चपाती, सब्जी नहीं बना सकता इसीलिए अलग अलग दाल और चावल लेकर आया।
मुझे पता था कि खिचड़ी में सबकुछ डाला जा सकता है और सभी डिशेज की जननी खिचड़ी ही है.. एक रूम के कमरों में कभी भी स्लैब वाला किचन नहीं होता। फर्श ही आपका किचन, आपका डाइनिंग टेबल, बेडरूम, ड्राइंगरूम होता है। कॉलेज के दिनों में पांच किलो वाली गैस बेहद फेमस थी..इस गैस के ऊपर बर्नर रखा होता है...इस वजह से इस गैस की ऊंचाई इतनी हो जाती है कि न पालथी मारकर, न ही उकड़ू बैठकर आप खाना बना सकते हैं। मुझे फर्श पर खड़ा होना पड़ता था और झुककर खाना बनाना पड़ता था..ऐसा लगता था कि मैं किसी तालाब में कांटे से मछली पकड़ रहा हूं। बहरहाल मैंने अपनी पहली खिचड़ी में अंदाजे से नमक, मिर्च, चावल, दाल , लहसून, अदरक सबकुछ मिला दिया और कुकर में पानी भरकर पंद्रह इंच ऊंचे गैस में रख दिया। जैसे कभी च्यवन ऋषि च्यवनप्राश को बनाने के लिए कढ़ाई में करछी घुमाते होंगे, ठीक वैसे ही मैं भी झुककर कुकर में करछी चलाने लगा लेकिन तभी फर्श पर पीली धाराएं बहने लगी...एक धारा ने मेरे बिस्तर को गीला कर दिया और दूसरी धारा ने मेरी किताबों को यलो पेज बना डाला। दरअसल करछी में जोर कुछ ज्यादा लग गया..कुकर का बैलेंस खराब हो गया और 15 इंच की गैस से कुकर धड़ाम हो गया।
मेरी दूसरी खिचड़ी भी कम क्रांतिकारी नहीं थी... मूंग की दाल की जगह मैंने कालीमिर्च की बलि ले ली। खिचड़ी खाने बैठा तो जुबान में इतने कालीमिर्च आए की मेरी जुबान ही काली हो गई... तीसरी खिचड़ी बनाने तक में प्रयोगधर्मी हो चुका था, मैंने सोचा की क्यों न बिना पानी के खिचड़ी बनाई जाए... खिचड़ी को पानी से दूर रखा..परिणाम ये हुआ कि कुकर के अंदर से जले हुए चावल-दाल, मसालों के साथ लिपटे हुए थे। उस दिन भूख का पेट पर जोरदार हमला हुआ था, इसलिए खिचड़ीनुमा प्रसाद को भी सिरमाथे लगा लिया। मेरी असफलता ने ही मुझे खिचड़ी एक्सपर्ट बनाया। भूख के लिए मैंने खिचड़ी का आलिंगन किया था और ये भूख ही थी जिसकी वजह से मैं तीस दिन में तीस तरह की खिचड़ी बनाने लगा था। एक दिन चावल, अरहर में अंडे का तड़का लगाता था तो दूसरे दिन सिर्फ मलका, मूंग में पालक का तड़का लगा लेता था। मैंने सेव, अनार, केले को भी खिचड़ी में डालकर पकाया। शायद वो संसार की सबसे पौष्टिक खिचड़ी होती होगी।
मैंने खिचड़ी में आटा भी डालने का प्रयोग किया... ये वाली खिचड़ी बिल्कुल फेवीकॉल की तरह चिपचिपी थी। खिचड़ी मैगी मेरा ही वेंचर है..जिसमें मुझे केंचुएनुमा मैगी और सूपनूमा चावल,दाल को अलग अलग करके खाना पड़ा। एक बार मैंने खिचड़ी में पानी की जगह दूध डाला..वो खिचड़ी शायद दुनिया की सबसे गंदे स्वादवाली खिचड़ी होगी। असफल प्रयोग एक जगह हैं लेकिन खिचड़ी ने जो मेरी सेवा की उसका बखान नहीं किया जा सकता। खिचड़ी के साथ मेरे प्रयोग ने मुझे सहनशील और सहिष्णु बना दिया...मैं पूरी जिंदगीभर बुरा से बुरा खाने के लिए भी तैयार हो रहा था।
खिचड़ी के मेरे प्रयोगों से बाद में होने ये लगा कि मैं आंख बंदकर के खिचड़ी बनाने लगा..किस खिचड़ी में कितना चावल, दाल, मसाला लगेगा मैं बिना देखे ही इसका अंदाजा लगा लेता था। मेरे साथ एक और समस्या भी थी अकेला होने की वजह से मैं एकलनिष्ठ हो गया था। मैं खुद के लिए अच्छी खिचड़ी बना सकता था लेकिन जब दूसरे के लिए भी मुझे खिचड़ी बनानी हो तो मेरी रेसिपी का हर पन्ना टुकड़े टुकड़े हो जाता था। जब मैं दो या दो से ज्यादा लोगों के लिए खिचड़ी बनाता था तो हमेशा बेस्वाद होती थी...मेरे दिमाग का खिचड़ी सॉफ्टवेयर इस तरह से तैयार हो चुका था कि मेरे हाथों से सिर्फ मेरे लिए ही मिर्च मसालों का सही कमपोजिशन गिरता था..ज्यादा लोगों के लिए बनाने पर सबकुछ गड़बड़ हो जाती थी।
खिचड़ी के लिए मैं इतना नॉस्टेलजिक था कि कॉलेज के बाद नौकरी के झंझट में फंसा तब भी मैंने खिचड़ी को नहीं छोड़ा। मैं ऑफिस में रात को करीब दस बजे पहुंचता था और सबसे पहला काम खिचड़ी बनाने का ही करता था, तकरीबन साढ़े दस बजे खिचड़ीपैक्ड कुकर की पहली सीटी बजती थी और तब तक बजती रहती थी जब तक मेरा मन न माने...मैं कुकर में डाले पानी के हिसाब से ये तय करता था कि आज दस सीटी वाली खिचड़ी बनानी है या बीस सीटी वाली...दस सीटी वाली खिचड़ी हमेशा गीली होती थी जो गले में आसानी से उतर जाती थी। बीस सीटी वाली खिचड़ी सख्त होती थी, जिसे खाने के लिए दही की जरूरत होती थी..तो जाहिर है जिस दिन मैं घर में दही का पैकेट लेकर आता था उसी दिन बीस सीटीवाली खिचड़ी नमूदार होती थी।
मेरे पड़ोस में एक आंटी रहती थी..मेरे कुकर की सीटी की टाइमिंग से उन्होंने अपने शराबी पति की खोज खबर लेने की मैचिंग फिक्स कर ली थी। रात के सीरियल देखते देखते वो इतनी व्यस्त हो जाती थी कि वो गली मोहल्ले में पड़े अपने शराबी पति को भी भूल जाती थी। जैसे ही मेरे कुकर की पहली सीटी बजती थी आंटी अपने पति की खोज खबर लेने मोहल्ले में निकल पड़ती थी..आंटी ने ये बात मुझे बाद में बताई थी।
खिचड़ी ने सामाजिक भलाई के अलावा निजी भलाई में भी बड़ा योगदान दिया... मेरे एक दोस्त ने एक दिन मेरी जमकर पीठ ठोकी और खिचड़ी खाने के मेरे अटूट रिकॉर्ड के लिए मुझे अभिभूत भी कर दिया। मेरे इस दोस्त का कुछ दिनों पहले ही पेट का भीषण ऑपरेशन हुआ था..उसके पेट की आंतों को काटना पड़ा था और लाखों रूपये खर्च करने पड़े थे। दरअसल उसकी आंतें निकालने का दोषी बाहर के खाने को माना गया... मेरे वो दोस्त भी मेरे तरह अकेला था..उसने खिचड़ी की जगह मसालेदार बाहर के खाने को तरजीह दी..इसीलिए भविष्य ने उसकी आंतें निकाल दी...मैं घर की खिचड़ीवाला ठहरा, इसलिए कोई रोग मेरा बाल भी बांका नहीं कर सका..उलटा खिचड़ी की वजह से मैं कभी तंदरूस्त नहीं हो पाया इसलिए मैं हमेशा स्लिम डूड की श्रेणी में बरकरार रहा।
करीब 7 साल तक लगातार खिचड़ी भक्षण करने के बाद इस बात का फर्क मिट गया कि, मैं खिचड़ी को खा रहा हूं या खिचड़ी मुझे खा रही है। खिचड़ी में आब-ए-जमजम डालू या फिर कश्मीर का केसर, उसका स्वाद एक जैसा ही लगता.....मेरी जीभ ने खिचड़ी को लेकर ऐसा समाजवादी रवैया अपना लिया था कि वो हर तरह की खिचड़ी का स्वाद समान ही लगने लगा था। बहरहाल खिचड़ी के साथ मेरे प्रयोग मुझे अब भी याद आते हैं। मेरी जिंदगी का एक बड़ा वक्फा खिचड़ी ने निकाला है... मैं अब भी खिचड़ी के साथ कई प्रयोग करना चाहता हूं लेकिन मेरे परिवारवाले ये सुनकर मुझे किचन से कोसो दूर कर देते हैं।
(इस ब्लॉग के लेखक संजय बिष्ट पत्रकार हैं और देश के नंबर वन हिंदी न्यूज चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं)