गुरमीत राम रहीम पर 2002 में ही रेप और मर्डर के आरोप लग चुके थे लेकिन फिर भी उसके अऩुयायियों की तादाद कम नहीं हुई। कोर्ट उसे रेपिस्ट करार दे चुकी है, इसके बाद भी उसके भक्तों ने ऐसा तांडव किया जिसे लंबे समय तक याद किया जाएगा। अगर आप सिरसा में कभी भी गए हों तो आपको उस शहर का कोई भी पांचवा या दसवां आदमी सुनी सुनाई बातों के आधार पर ये बता सकता है कि डेरे के अंदर क्या क्या कुकर्म होते हैं..इसके बावजूद भी राम रहीम पर लोगों की आस्था कम नहीं होती।
उसके समर्थक ये मानने को तैयार नहीं होते कि राम रहीम गलत काम कर सकता है, उल्टा उसके अनुयायी अब भी ये आस लगाए हुए हैं कि राम रहीम जेल से ही कोई चमत्कार करेगा। ऐसा क्यों है कि सच जानने के बाद भी राम रहीम के फॉलोवर सच मानने को तैयार नहीं है? वो वजह क्या है कि राम रहीम की सच्चाई जानने के बाद भी लोग उसे भगवान मानते हैं? तर्कवादी जनता ऐसे धर्मगुरुओं की हरकतों की खिल्ली उड़ाती है लेकिन क्यों राम रहीम के पांच करोड़ भक्त उसके लिए मरने मारने पर भी उतारू हो जाते हैं? इन सवालों के जवाब और राम रहीम के धर्मपशु बनने के जवाब, धर्म और धर्म से उपजी विसंगतियों में नज़र आते हैं। जिस धर्म ने गैर बराबरी पैदा की जिस धर्म ने ऊंच नीच के पायदान तय किए। राम रहीम जैसे चालाक धर्मगुरुओं ने उसी धर्म का इस्तेमाल लोगों की आंखों में पट्टी बांधने में किया।
राम रहीम के डेरा सच्चा सौदा के ज्यादातर अनुयायी निचली जातियों के हैं..पंजाब-हरियाणा के ऐसे लोग डेरा के अनुयायी बने जो दलित, पिछड़े, अवर्ण और अनुसूचित जातियों से ताल्लुक रखते हैं। ये वो लोग हैं जिन्हें उनके धर्म में कभी बराबरी नहीं मिली। ये वो लोग हैं जिन्हें उनके मजहब ने ही दरवाजे से बाहर का रास्ता दिखाया। जब धर्म ने ही समाज में इज्ज़त से जीना मयस्सर नहीं किया तो ऐसे लोगों ने धर्म के अंदर रहकर ही एक अलग धारा चुन ली।
पिछड़ी जातियों के लिए धर्म को छोड़कर डेरा को चुनना ज्यादा सहूलियत भरा था क्योंकि यहां धर्म परिवर्तन जैसी कोई बाध्यता नहीं है। राम रहीम का डेरा एक ऐसी कृत्रिम आस्था लिए हुए है जहां दिखाने के लिए ही सही लेकिन गैर बराबरी नज़र नहीं आती। भगवान और धर्म से दूर किए गए शोषितों के लिए अपना एक अलग भगवान बना लेना मुक्ति का एक शॉर्टकट भी है। शॉर्टकट की इसी मजबूरी को राम रहीम ने आडंबरों के लेप में लपेटा और एक ऐसी विकृत धार्मिकता और अंध आस्था पैदा कर दी, जिसने अनुयायियों के सोच के दायरे को सिर्फ राम रहीम तक सीमित कर दिया।
धर्म की विसंगतियों से उपजी ये ऐसी धार्मिकता है जो सिर्फ अनपढ़ों पर ही असर नहीं दिखाती है बल्कि पढ़े लिखे भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। राम रहीम के पास ऐसे भक्तों की भी कमी नहीं जो न सिर्फ पढ़े लिखे हैं बल्कि समाज को दिशा भी देते हैं। डॉक्टर, सर्जन, प्रोफेसर, पत्रकार, IAS, PCS अफसरों की अच्छी खासी जमात राम रहीम को अपना भगवान मानती है। अब इनसे पूछिए कि पढ़ने लिखने के बाद भी इनका विवेक उन्हें कैसे ये इजाजत देता है कि वो एक आरोपी इंसान को चमत्कारी पुरूष समझे तो इनका जवाब होगा राम रहीम के जरिए वो भगवान के दर्शन करते हैं।
दरअसल ये वाला जो भगवान है वो रूढिवादी सोच, मुक्ति के कर्मकांडी उपाय और अगले जन्म को सुखी बनाने के फेर से जन्मा है। ऐसे भगवान के आगे न कोई तर्क काम आता है और न ही कोई परिभाषा। पढ़ाई लिखाई भी मन के इन जालों को साफ नहीं कर पाती। ये उस पढाई लिखाई के पैटर्न का नतीजा है जिसमें अच्छे नंबरों के लिए आंसर शीट के पहले पन्ने में ओम लिखा जाता है या फिर स्वास्तिक का निशान बना दिया जाता है। यानी जब तर्क की खोज में ही टोटके का इस्तेमाल कर लिया गया हो तो ये तय है कि उस पढ़ाई का असर सिफ डिग्रियों तक ही होगा, दिमाग की नसों को खोलने के लिए नहीं।
ऐसे पढ़े लिखे भक्तों में हमेशा कुछ चालाक भक्त भी होते हैं जो सबकुछ समझते हैं लेकिन पैसों की माया जोड़ने के लिए ऐसे ठग बाबाओं की शरण में दूसरे लोगों को लगातार सरेंडर करवाते हैं। बाबाओं, तांत्रिकों के इर्द गिर्द मंडराने वाले कुछ दिमागदार लोगों ने ही धर्म के नाम पर अकूत दौलत और ताकत कमाने का फॉर्मूला ईजाद किया है। ऐसे लोग राम रहीम के डेरे में भी मौजूद है। असल में राम रहीम को महीमा मंडित करके भगवान बनाने वाले भी यही चंद पढ़े लिखे दिमागदार लोग हैं।
लोगों को सत्संग कराने की आड़ में बाबा और भक्त के बीच लेनदेन का ऐसा तंत्र पैदा हुआ जिसमें राम रहीम को असीम ताकत मिली तो उसके अनुयायियों को बाबा की सीमाओं में रहकर शरण मिली.. विश्वास जब सीमा से आगे का हो तो वो अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। ऐसा अंधविश्वास हमेशा इस्तेमाल के योग्य होता है। जिसे राम रहीम ने भी इस्तेमाल किया। इसे दूसरे बाबा भी इस्तेमाल करते हैं और भविष्य के भी सभी करामाती बाबा इसका इस्तेमाल करते रहेंगे।
धर्म के इस्तेमाल की राम रहीम की मोडस ऑपरेंडी लगभग सभी धर्मगुरुओं की है। धर्म की नाजुक कलाई पकड़कर जनता की सोच पर हावी होना आसान है। इसीलिए वो समाज सबसे मजबूत समाज बनता है जहां धर्म, सत्ता, ताकत, रसूख की पिछलग्गू नहीं बल्कि आलोचक होती है। आलोचना का दमन जनता को सेवादार बनाने की सीढ़ी है, ऐसे सेवादार जिनका इस्तेमाल कभी भी किया जा सकता है।
(इस ब्लॉग के लेखक संजय बिष्ट पत्रकार हैं और देश के नंबर वन हिंदी न्यूज चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं)