नई दिल्ली: ऐतिहासिक सबरीमाला मंदिर मामले में बहुमत से असहमति जताने वाले एकमात्र फैसले में जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा कि धार्मिक परंपराओं की न्यायिक समीक्षा नहीं की जानी चाहिए क्योंकि अदालतें ईश्वर की प्रार्थना के तरीके पर अपनी नैतिकता या तार्किकता लागू नहीं कर सकतीं। 5 न्यायाधीशों की पीठ में शामिल 4 पुरुष न्यायाधीशों ने सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश का समर्थन किया जबकि न्यायूमर्ति मल्होत्रा ने मंदिर में दस से 50 वर्ष आयुवर्ग की महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी की सदियों पुरानी परंपरा में हस्तक्षेप से इंकार किया।
उन्होंने कहा कि निष्कासन के सभी प्रकार ‘अस्पृश्यता’ नहीं होते और निश्चित आयुवर्ग की महिलाओं की पाबंदी मंदिर की परंपराओं, विश्वास और ऐतिहासिक मूल पर आधारित है। जस्टिस मल्होत्रा ने कहा कि मंदिरों में प्रवेश को लेकर दलितों और महिलाओं के अधिकारों की तुलना करना ‘पूरी तरह से गलत विचार और बचाव न करने लायक’ है। उन्होंने व्यवस्था दी कि संबंधित आयुवर्ग में महिलाओं के प्रवेश पर सीमित पाबंदी संविधान के अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता पर पाबंदी) के दायरे में नहीं आती।
न्यायाधीश ने कहा कि इस मामले में उठाए गए मुद्दों का केवल सबरीमाला मंदिर के लिए नहीं बल्कि देश में विभिन्न धर्मों के सभी प्रार्थना स्थलों पर व्यापक असर होगा जिनकी अपनी आस्था, परंपरा और रीति रिवाज हैं। जस्टिस मल्होत्रा ने कहा, ‘धर्मनिरपेक्ष राजव्यवस्था में, गहरी धार्मिक आस्था और भावनाओं के मामलों में सामान्य रूप से अदालतों द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।’