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रानी गाइदिनल्यू, स्वतंत्रता संग्राम की गुमनाम नायिका

स्वतंत्रता संग्राम का ज़िक्र होते ही कई नाम हमारे ज़हन में कौंध जाते हैं लेकिन दुर्भाग्य से कुछ ऐसे भी नाम हैं जिनका योगदान किसी से कम नहीं लेकिन फिर भी वे हमारे लिए बेनाम-बेचेहरा बने हुए हैं। इसी कड़ी में एक नाम है रानी गाइदिनल्यू का जो मणिपुर की थी

Written by: India TV News Desk
Updated on: August 11, 2017 10:07 IST
rani gaidinliu- India TV Hindi
rani gaidinliu

स्वतंत्रता दिवस एक ऐसा मौक़ा होता है जब हम हमारे देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने और क़ुर्बान होने वाले स्वतंत्रता सैनानियों को याद करते हैं। दरअसल हम उन्हें याद नहीं करते, वे तो हमारे ज़हन में सदियों से नक्श हैं क्योंकि इन लोगों के बारे में हमेशा लिखा-पढ़ा जाता रहा है। इसीलिए स्वतंत्रता संग्राम का ज़िक्र होते ही कई नाम हमारे ज़हन में कौंध जाते हैं लेकिन दुर्भाग्य से कुछ ऐसे भी नाम हैं जिनका योगदान किसी से कम नहीं लेकिन फिर भी वे हमारे लिए बेनाम-बेचेहरा बने हुए हैं। इसी कड़ी में एक नाम है रानी गाइदिनल्यू का जो मणिपुर की रहने वाली थी। अल्लूरी सीताराम राजू, स्वतंत्रता संग्राम का गुमनाम नायक

रानी गाइदिनल्यू नगा आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता थी जिन्होंने नगालैंड में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत की थी। महज़ 13 साल की उम्र में वे अपने चचेरे भाई जादोनाग के ‘हेराका’ आन्दोलन में शामिल हो गयीं। आन्दोलन का लक्ष्य प्राचीन नगा धार्मिक मान्यताओं की बहाली और पुनर्जीवन करना था। धीरे-धीरे यह आन्दोलन ब्रिटिश विरोधी हो गया। गाइदिनल्यू मात्र 3 साल में ब्रिटिश सरकार के विरोध में लड़ने वाली एक छापामार दल की नेता बन गयीं। धीरे-धीरे कई कबीलों के लोग इस आन्दोलन में शामिल हो गए और इसने ग़दर का रुप धारण कर लिया। वे नागाओं के पैतृक धार्मिक परंपरा में विश्वास रखती थीं इसलिए जब अंग्रेज़ों ने नगाओं का धर्म परिवर्तन कराने की मुहिम शुरु की तो गाइदिनल्यू ने इसका जमकर विरोध किया। हेराका पंथ में रानी गाइदिनल्यू को चेराचमदिनल्यू देवी का अवतार माना जाने लगा। 

सन 1931 में जब अंग्रेजों ने जादोनाग को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया तब रानी गाइदिनल्यू उसकी आध्यात्मिक और राजनीतिक उत्तराधिकारी बनी। उन्होंने अपने समर्थकों को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खुलकर विद्रोह करने के लिया कहा। उन्होंने अपने लोगों को कर नहीं चुकाने के लिए भी प्रोत्साहित किया। कुछ स्थानीय नागा लोगों ने खुलकर उनके कार्यों के लिए चंदा दिया।

ब्रिटिश प्रशासन उनकी गिरफ़्तारी की ताक में था लेकिन रानी असम, नागालैंड और मणिपुर के एक-गाँव से दूसरे गाँव घूम-घूम कर प्रशासन को चकमा दे रही थीं। असम के गवर्नर ने ‘असम राइफल्स’ की दो टुकड़ियाँ उनको और उनकी सेना को पकड़ने के लिए भेजा। इसके साथ-साथ प्रशासन ने रानी गाइदिनल्यू को पकड़ने में मदद करने के लिए इनाम भी घोषित कर दिया और अंततः 17 अक्टूबर 1932 को रानी और उनके कई समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया।

रानी गाइदिनल्यू को इम्फाल ले जाया गया जहाँ उनपर 10 महीने तक मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। प्रशासन ने उनके ज्यादातर सहयोगियों को या तो मौत की सजा दी या जेल में डाल दिया। सन 1933 से लेकर सन 1947 तक रानी गाइदिनल्यू गौहाटी, शिल्लोंग, आइजोल और तुरा जेल में कैद रहीं। सन 1937 में जवाहरलाल नेहरु उनसे शिल्लोंग जेल में मिले और उनकी रिहाई का प्रयास करने का वचन दिया। उन्होंने ही गाइदिनल्यू को ‘रानी’ की उपाधि दी। उन्होंने ब्रिटिश सांसद लेडी एस्टर को इस सम्बन्ध में पटर लिखा पर ‘सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया’ ने इस निवेदन को अस्वीकृत कर दिया।

जब सन 1946 में अंतरिम सरकार का गठन हुआ तब प्रधानमंत्री नेहरु के निर्देश पर रानी गाइदिनल्यू को तुरा जेल से रिहा कर दिया गया। अपनी रिहाई से पहले उन्होंने लगभग 14 साल विभिन्न जेलों में काटे थे। रिहाई के बाद वे अपने लोगों के उत्थान और विकास के लिए कार्य करती रहीं।

सन 1972 में उन्हें ‘ताम्रपत्र स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार’, 1982 में पद्म भूषण और 1983 में ‘विवेकानंद सेवा पुरस्कार’ दिया गया। सन 1991 में वे अपने जन्म-स्थान लोंग्काओ लौट गयीं जहाँ 17 फरवरी 1993 को 78 साल की आयु में उनका निधन हो गया।

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