दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक हैट्रिक बनाई और 70 में से 62 सीटों पर शानदार जीत हासिल की, जबकि बाकी की आठ सीटें भाजपा के खाते में गईं। वहीं पिछले साल संपन्न लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सभी सात लोकसभा सीटों पर बीजेपी ने शानदार जीत दर्ज की थी, जब बालाकोट एयरस्ट्राइक को लेकर उत्साहित मतदाताओं ने अपना भरपूर समर्थन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया था।
इस बार बीजेपी ने दिल्ली का चुनाव जीतने के लिए जबरदस्त ताकत लगाई थी। दिल्ली की राजनीति में वापसी के लिए पार्टी ने अपने सभी नेताओं और संसाधनों को झोंक दिया, लेकिन वह बुरी तरह विफल रही। गृह मंत्री अमित शाह ने नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, स्मृति ईरानी, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान जैसे पार्टी के दिग्गजों को चुनाव प्रचार के लिए दिल्ली के कोने-कोने में भेजा। करीब 200 सांसदों को इस प्रचार अभियान में शामिल होने के लिए कहा गया और एक भी इलाके को इससे वंचित नहीं रखा गया। इसके बाद भी दिल्ली हाथ से निकल गई और पार्टी दहाई का आंकड़ा भी छू नहीं पाई।
जाहिर है आपके मन में सवाल होगा कि केजरीवाल ने 70 में से 62 सीटें जीतकर कैसे कमाल कर दिया? आइए, दिल्ली के लोगों के इस जनादेश के पीछे के कारणों को समझने की कोशिश करते हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने करीब डेढ़ साल पहले से ही चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी। उन्होंने योजना बनाई, अपनी रणनीति तैयार की और उम्मीदवारों के नाम लगभग तय कर लिए थे। वहीं दूसरी तरफ भाजपा के खेमे में स्थानीय नेता चुनाव के पन्द्रह-बीस दिन पहले तक चिंतित और हैरान थे। किसी को नहीं पता था कि दिल्ली में बीजेपी के चुनाव प्रचार को कौन लीड करेगा, पार्टी की रणनीति क्या होगी और मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा?
दिल्ली में ये सब जानते थे कि केजरीवाल सस्ती और मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मोहल्ला क्लीनिक, बेहतर स्कूली शिक्षा जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ेंगे। लेकिन बीजेपी ये तय नहीं कर पाई कि इन मुफ्त की योजनाओं का समर्थन करना है, या विरोध करना है। पार्टी की स्थानीय ईकाई में इसे लेकर टोटल कन्फ्यूजन था।
केजरीवाल की रणनीति साफ थी: मुख्यमंत्री के उम्मीदवार केजरीवाल थे, उन्हें सरकार के काम (मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी) पर वोट मांगने थे और सबसे बड़ी बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर किसी तरह का कोई हमला नहीं करना था। किसी तरह के निगेटिव कैंपेन (नकारात्मक प्रचार) से बचना था और उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं में इसे लेकर स्पष्टता थी। इसी स्पष्टता के साथ केजरीवाल चुनाव मैदान में उतरे और उनकी पार्टी ने ऐतिहासिक जीत हासिल की।
वहीं दूसरी ओर बीजेपी ने शाहीन बाग, टुकड़े-टुकड़े गैंग और देशद्रोह को अपना एजेंडा बनाया और धीरे-धीरे ये कैंपेन और तीखा होता गया। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने नारा लगाया ''देश के गद्दारों को, गोली मारो ......, प्रवेश वर्मा ने अरविन्द केजरीवाल को 'आतंकवादी' कहा, लेकिन केजरीवाल इन सब बातों में नहीं पड़े। उनकी रणनीति साफ थी। वे जानते थे कि बिजली, पानी, ट्रांसपोर्ट, एजुकेशन और हेल्थ जैसे मुद्दों पर जोर देने से उनका काम हो जाएगा।
ये बीजेपी के लिए मुश्किल पैदा करने वाली रणनीति थी। बीजेपी के नेताओं ने लाख कोशिश की...लेकिन केजरीवाल न शाहीन बाग के मुद्दे में फंसे, न पाकिस्तान में। जब पाकिस्तान के एक मंत्री ने नरेन्द्र मोदी की दिल्ली में हार की कामना का ट्वीट किया तो केजरीवाल ने जवाब में ट्वीट कर कहा 'मोदी जी देश के नहीं मेरे भी प्रधानमंत्री हैं।' केजरीवाल ने आतंकवादी कहे जाने पर दिल्ली की जनता से कहा कि वो 'दिल्ली के बेटे' हैं, क्या दिल्ली का बेटा आंतकवादी हो सकता है? तब तक दिल्ली की जनता ने केजरीवाल और उनकी पार्टी को वोट देने का मन बना लिया था।
अब आप सोच रहे होंगे कि इस सारी लड़ाई में कांग्रेस जीरो पर कैसे रह गई। दरअसल, केजरीवाल के जीतने और भाजपा को धूल चटाने में मदद करने के लिए कांग्रेस ने वास्तव में अपना मन बना लिया था। क्योंकि अगर कांग्रेस दिल्ली में थोड़ी भी मजबूत होती तो बीजेपी को ज्यादा सीटें मिलती। मंगलवार को इंडिया टीवी स्टूडियो में चुनावी बहस के दौरान कांग्रेस के एक नेता ने टिप्पणी की कि उनकी पार्टी ने 'दिल्ली में भाजपा को हराने के लिए खुद का बलिदान कर दिया।' यहां तक कि मध्य प्रदेश के सीएम कमलनाथ भी जानते थे कि कांग्रेस को एक भी सीट नहीं आएगी। आप और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर के लिए मैदान छोड़ कांग्रेस ने न तो अपने नेता का चेहरा प्रोजेक्ट किया, न ही चुनाव के दौरान पार्टी के बड़े नेताओं ने ज्यादा प्रचार किया।
यह आश्चर्य की बात है कि केजरीवाल ने पांच साल सरकार चलाने के बाद भी पार्टी का वोट प्रतिशत पिछले चुनाव में मिले वोट प्रतिशत के बराबर बरकरार रखा है। पिछली बार (2015 विधानसभा चुनाव) भी उनको 54 प्रतिशत वोट मिला था और इस बार भी लगभग उतना ही है। भाजपा के नेता इस बात से संतुष्ट हो सकते हैं कि उनकी पार्टी का वोट प्रतिशत 32.2 से बढ़कर 38.5 प्रतिशत हो गया है। लेकिन यहां इस बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत 9.7 से घटकर 4.3 प्रतिशत हो गया है।
गृह मंत्री अमित शाह ने प्रचार अभियान में पूरा जोर लगाया। उन्होंने कई जनसभाओं को संबोधित किया, रोड शो निकाला, देर रात तक गली-गली घूमे और बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं में जोश भरा। उन्होंने पार्टी के प्रचार अभियान की योजना बनाई और कई मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों को प्रचार के लिए उतारा।
हालांकि जमीन स्तर पर ये मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय स्तर के नेता कहीं से भी प्रभावी नहीं रहे क्योंकि दिल्ली के मतदाताओं के बात और व्यवहार की बारीकियों को एक दिल्लीवाला ही बेहतर तरीके से जान सकता है। दिल्ली को जानने वाले विजय गोयल और विजय जौली जैसे नेता कहीं नजर नहीं आए। पार्टी कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं के बीच काफी कन्फ्यूजन था। वे केजरीवाल को गली-गली और झुग्गी-झोपड़ी में जाकर चुनाव प्रचार करते देखते रहे और उन्हें समझ नहीं आया कि करना क्या है।
बीजेपी को आने वाले दिनों में दिल्ली के आम मतदाताओं का दिल जीतने के लिए गंभीर आत्मनिरीक्षण की जरूरत है। पार्टी को उन बुनियादी मुद्दों का समाधान ढूंढना चाहिए जो दिल्ली के आम मतदाताओं को प्रभावित करते हैं। (रजत शर्मा)
देखें, 'आज की बात' रजत शर्मा के साथ, 11 फरवरी 2020 का पूरा एपिसोड