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Rajat Sharma's Blog: कैसे 'पुत्र-मोह में अंधे' हुए उद्धव ठाकरे

उद्धव वो सब करने को तैयार हुए जो उनके भावी सहयोगियों ने उनसे करने के लिए कहा। इन सब स्थितियों में निश्चित रूप से सबसे बड़ी हार शिवसेना और उसके नेता उद्धव ठाकरे की है। हिंदी में एक कहावत है: 'दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम ’।

Written by: Rajat Sharma @RajatSharmaLive
Published on: November 12, 2019 17:15 IST
Rajat Sharma's Blog: How Uddhav Thackeray was ‘blinded by affection’ for his son- India TV Hindi
Image Source : INDIA TV Rajat Sharma's Blog: How Uddhav Thackeray was ‘blinded by affection’ for his son

शिवसेना ने सोमवार को जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग होने का फैसला लिया और महाराष्ट्र में सरकार बनाने का दावा लेकर प्रदेश के राज्यपाल के पास पहुंची तो उसके पास न तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और न ही कांग्रेस के समर्थन की कोई चिट्ठी थी। इन दोनों दलों के नेताओं की तरफ दिये गए मौखिक आश्वासनके अतिरिक्त शिवसेना के नेताओं के पास कुछ नहीं था। 

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स्पष्ट रूप से, राज्यपाल ने शिवसेना को गठबंधन बनाने के लिए अधिक समय देने से इनकार कर दिया और तीसरे सबसे बड़े दल राष्टवादी कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाने के तरीके तलाशने के लिए कहा। हालात अभी-भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं क्योंकि कांग्रेस आलाकमान में इस पर चर्चा तो हो रही है लेकिन वे भी संदेह की स्थिति से जूझ रहे हैं। 

 
आज शिवसेना का जो हाल है उसके लिए उद्धव ठाकरे का 'पुत्रमोह' जिम्मेदार है। उद्धव ठाकरे किसी भी तरह से अपने बेटे आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाना चाहते हैं। चाहे ढाई साल के लिए (बीजेपी के साथ), चाहे ढाई महीने के लिए या ढाई दिन के लिए ही सही। हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों के दौरान उद्धव जब मतदाताओं के बीच गए तो उन्होंने लोगों से यही कहा कि यह उनके पिता बालासाहेब ठाकरे की अंतिम इच्छा है कि परिवार का एक सदस्य महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बने। अब वो दिन चले गए जब सार्वजनिक तौर पर बालासाहेब यह दावा करते थे कि वे मुख्यमंत्री मनोहर जोशी का मार्गदर्शन करने के लिए रिमोट का सहारा लेते हैं।

यह उद्धव ठाकरे का 'पुत्रमोह' ही था कि जिस बीजेपी के साथ गठबंधन कर उन्होंने हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव लड़ा उसी से अलग होने का फैसला ले लिया। महाराष्ट्र में वर्ष 1989 से 2014 तक करीब 25 साल तक बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन रहा है। पिछले महीने संपन्न विधानसभा चुनाव में शिवसेना और बीजेपी ने एनसीपी और कांग्रेस दोनों दलों की निंदा करते हुए पूरे महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार किया था।

सोमवार को समर्थन जुटाने के लिए उद्धव ठाकरे को एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार से मिलने के लिए मुंबई के एक होटल में जाने का अपमान झेलना पड़ा और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को टेलीफोन करके उनसे अपनी पार्टी का समर्थन मांगने का अनुरोध करना पड़ा। 
 
उद्धव वो सब करने को तैयार हुए जो उनके भावी सहयोगियों ने उनसे करने के लिए कहा। उनकी पार्टी एनडीए से अलग हो गई और केंद्र में उनकी पार्टी के मंत्री अरविंद सावंत ने इस्तीफा दे दिया। होटल में शरद पवार ने उन्हें चाय पिलाई लेकिन समर्थन की कोई चिट्ठी नहीं सौंपी। शरद पवार राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। वे किसी भी तरह का वादा करने या प्रतिबद्धता जताने से पहल 10 कदम आगे सोचते हैं।
 
सोमवार रात अचानक एक अजीब घटनाक्रम हुआ जब राज्यपाल ने शरद पवार के भतीजे अजीत पवार और उनके सहयोगियों को सरकार बनाने का रास्ता तलाशने के लिए बुलाया। सोमवार शाम तक जो शिवसेना एनसीपी के समर्थन का दावा कर रही थी रात में उसी शिवसेना को एनसीपी को समर्थन देने के बारे में सोचने के लिए कहा जा रहा था। महाराष्ट्र की राजनीति के पहिये ने 180 डिग्री का मोड़ ले लिया था। 
 
दरअसल ये सवाल नैतिकता का नहीं बल्कि सत्ता का है। बीजेपी की परेशानी ये है कि वह शिवसेना से ये भी नहीं कह सकती कि जिसके खिलाफ चुनाव लड़ा उसके साथ मिलकर सरकार बनाना अनैतिक है क्योंकि अभी हाल में बीजेपी ने भी हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई है। विधानसभा चुनाव में दोनों दल एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे। वहीं कांग्रेस भी राजनीतिक मर्यादा और नैतिकता का सवाल नहीं उठा सकती क्योंकि कांग्रेस ने भी पिछले साल उस जेडीएस के साथ मिलकर कर्नाटक में सरकार बनाई थी...जिसके खिलाफ वो विधानसभा चुनाव लड़ी थी। हालांकि बाद में यह गठबंधन बिखर गया था।
 
शिवसेना के नेतृत्व वाले गठबंधन को कांग्रेस द्वारा समर्थन नहीं देने के पीछे सबसे बड़ा सवाल वोट बैंक का है। कांग्रेस के कई सीनियर नेताओं ने ये कहा कि अगर शिवसेना को सरकार बनाने में मदद की गई और अगर कांग्रेस अपनी विचारधारा छोड़कर शिवसेना का मुख्यमंत्री बनाने के लिए साथ खड़ी दिखाई दी, तो बड़ी संख्या में मुसलमान नाराज हो जाएंगे। इस फैसले का असर केरल, कर्नाटक, बिहार, पश्चिम बंगाल और यूपी जैसे राज्यों में हो सकता है और कांग्रेस को भारी नुकसान हो सकता है। यही वजह है कि कांग्रेस फैसला नहीं कर पाई। इन सब स्थितियों में निश्चित रूप से सबसे बड़ी हार शिवसेना और उसके नेता उद्धव ठाकरे की है। हिंदी में एक कहावत है: 'दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम ’। (रजत शर्मा

देखिए, 'आज की बात' रजत शर्मा के साथ, 11 नवंबर 2019 का पूरा एपिसोड

 

 

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