महाराष्ट्र में 3 प्रमुख घटक दलों के बीच बुधवार को 6 घंटे की मैराथन बैठक के बाद ‘महा विकास आघाड़ी’ गठबंधन सरकार के व्यापक स्वरूप को तय किया गया, और अब ठाकरे परिवार से पहला सदस्य शिवाजी पार्क में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए तैयार है।
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के लिए अपने दोनों सहयोगियों को खुश रख पाना निश्चित तौर पर आसान नहीं रहने वाला है। अब जबकि सियासी तूफान थम चुका है, लोग अब शिवसेना से स्पष्टीकरण का इंतजार कर रहे हैं कि उसने अपनी दशकों पुरानी भगवा विचारधारा को छोड़कर कांग्रेस जैसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के साथ हाथ क्यों मिलाया।
कांग्रेस अदालतों में भगवान राम के अस्तित्व पर सवाल उठाती रही है, और शिव सेना अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन में सबसे आगे थी। शिवसेना की पहचान हमेशा से उग्र हिंदुत्व की रही है, और कांग्रेस सभी हिंदुत्व समर्थकों को सांप्रदायिक कहती रही है। शिवसेना हिंदुत्व के विचारक वीर सावरकर को लगातार भारत रत्न देने की मांग करती रही है और कांग्रेस उनकी महानता पर सवाल उठाती रही है। अब सवाल यह है कि उद्धव ठाकरे दो विपरीत विचारधाराओं के बीच के इस व्यापक अंतर को कैसे पाटेंगे। उद्धव ठाकरे और उनके मुखपत्र 'सामना' ने भी दशकों तक कांग्रेस, सोनिया और राहुल गांधी को जमकर कोसा है।
यह भी एक कठोर यथार्थ है कि उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री के रूप में ढाई साल के कार्यकाल के लिए बीजेपी से शिवसेना की 30 साल पुरानी दोस्ती तोड़ दी। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बताया कि उन्होंने या उनकी पार्टी ने कभी भी शिवसेना से मुख्यमंत्री पद का वादा नहीं किया। उन्होंने कहा कि उद्धव और आदित्य ठाकरे की मौजूदगी में लगभग हर बड़ी रैली में पार्टी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बताया था तब भी दोनों में से किसी ने इस दावे को चुनौती नहीं दी।
इन चुनावों में बीजेपी ने 105 सीटें जीती थीं जबकि शिवसेना को 56 सीटें मिली थीं। बीजेपी स्पष्ट रूप से बड़ी भागीदार थी और उसे मुख्यमंत्री पद का दावा करने का अधिकार था। स्वाभाविक रूप से, शिव सेना नेताओं को लोगों के तमाम सवालों के जवाब देने पड़ेंगे। बीजेपी भी ये सारे सवाल ज्यादा तीखे तरीके से और अधिकार के साथ तब तक पूछ सकती थी, जब तक कि उसने आधी रात को अजित पवार से समर्थन लेकर सरकार न बनाई थी।
यह सही है कि देवेंद्र फडणवीस ने अजित पवार के वादे पर भरोसा करके एक बड़ी गलती की और उन्होंने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसे स्वीकार भी किया। लेकिन राज्य के वे बीजेपी नेता, जिनका मंत्रीपद चला गया था या फिर जिन्हें टिकट नहीं मिला था, इस मौके का इस्तेमाल फडणवीस पर जवाबी हमला बोलने में करेंगे। बीजेपी नेता एकनाथ खडसे ने बुधवार को सिंचाई घोटाले जैसे बड़े स्कैम के आरोपी अजित पवार से समर्थन लेने के पीछे की समझ पर सवाल उठाया।
भारतीय राजनीति की दुनिया में बतौर पत्रकार अपने लंबे अनुभव में मैंने कभी अजित पवार जैसा शख्स नहीं देखा। उन्होंने अपने परिवार से बगावत की, पार्टी को तोड़ने की कोशिश की, अपने सबसे बड़े नेता की गठबंधन बनाने की कोशिश को नाकाम करने का प्रयास किया, और यह कहते हुए आराम से पार्टी और परिवार में वापस आ गए, ‘मैं हमेशा एनसीपी के साथ था, मैं एनसीपी में हूं और मैं एनसीपी में ही रहूंगा।’
बुधवार की बैठक में वह शरद पवार की कुर्सी के बगल उसी तरह बैठे जैसे पहले बैठते थे। दरअसल, मराठा क्षत्रप शरद पवार यह जानते हैं कि यह अजित पवार ही हैं जिन्होंने पिछले दो दशकों से व्यावहारिक रूप से पार्टी को चलाया है, और पार्टी के अधिकांश नेताओं पर उनकी अच्छी पकड़ है। निश्चित रूप से ऐसी कोई मिसाल कभी नहीं रही है, जब किसी नेता ने अपनी पार्टी में बगावत की हो और फिर सत्ता में हिस्सेदारी लेने के लिए आराम से वापस आ गए।
परिवार और पार्टी को अक्षुण्ण बनाए रखने का श्रेय शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले को जाता है, जिन्होंने पिछले दो हफ्ते में बेहद कड़ी मेहनत की। उन्होंने बैठकों में हरेक विधायक का व्यक्तिगत रूप से स्वागत किया। सुप्रिया ने अपने पिता से बहुत कुछ सीखा है, जो कि आज भी एक जननेता हैं, जिन्होंने हमेशा जमीन की राजनीति की है, और जो आम लोगों के बीच घुलते-मिलते रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि शरद पवार चाहते थे कि उनकी बेटी उनकी राजनीतिक वारिस बने, लेकिन हर बार अजित पवार रास्ते में आ जाते थे। इस राजनीतिक नौटंकी के बाद, सुप्रिया सुले का कद काफी बड़ा हो गया है, जबकि अपने लोगों के बीच अजित पवार के कद को चोट पहुंची है। (रजत शर्मा)
देखिए, आज की बात रजत शर्मा के साथ, 27 नवंबर 2019 का पूरा एपिसोड