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Rajat Sharma’s Blog- सियासी हलचल: विपक्ष का नेतृत्व और यूपी, बिहार में जाति की राजनीति

ममता बनर्जी भले ही दावा कर रही हों कि अगले चुनावों का नारा सेट है, मुद्दे सेट हैं, लेकिन अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि कौन सी पार्टियां मोदी विरोधी आंदोलन में शामिल होंगी।

Written by: Rajat Sharma @RajatSharmaLive
Published : July 31, 2021 18:46 IST
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Image Source : INDIA TV India TV Chairman and Editor-in-Chief Rajat Sharma.

संसद का मॉनसून सत्र चल रहा है लेकिन अब तक संसद नहीं चल पाई है। संसद ठप होने के लिए केंद्र और विपक्ष दोनों एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के बड़े-बड़े नेता दिल्ली में हैं, सांसद भी रोजाना संसद जाते हैं लेकिन दोनों में से किसी भी सदन में चर्चा नहीं हो रही है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि सियासी गलियारों में आखिर हो क्या रहा है? असल में अगले साल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब समेत कुल 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए नेता इस वक्त का इस्तेमाल दिल्ली में बैठकर चुनावों की रणनीति बनाने में कर रहे हैं।

ममता ने शरद पवार से मुलाकात क्यों नहीं की?

पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी 5 दिनों के लिए दिल्ली में थीं। उन्होंने विभिन्न दलों के सभी बड़े नेताओं से मुलाकात की। वह शुक्रवार को वापस कोलकाता लौट गईं लेकिन दिल्ली में मौजूद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार से उनकी मुलाकात नहीं हुई। बनर्जी ने एक राष्ट्रव्यापी बीजेपी विरोधी मोर्चा बनाने की नींव रखने की कोशिश की। उन्होंने इस बात का आकलन करने की कोशिश की कि मोदी विरोध के नाम पर किन पार्टियों को इकट्ठा किया जा सकता है और कौन सी पार्टियां खेल खराब कर सकती हैं।

ममता बनर्जी ने सार्वजनिक तौर पर साफ किया था कि उनका उद्देश्य नरेंद्र मोदी और बीजेपी को हराना है। चूंकि कांग्रेस पूरे भारत में फैली है और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है, इसलिए उन्होंने सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल से उनके आवास पर मुलाकात की। सूत्रों के मुताबिक, ममता ने सोनिया से कहा कि वह इस बात पर विचार करें कि कांग्रेस सिर्फ उन्हीं सीटों से चुनाव लड़े जहां वह बीजेपी से लड़ने में सक्षम है, और बाकी की सीटों को अन्य पार्टियों के लिए छोड़ दे। हालांकि अभी यह एक दूर की कौड़ी है, और इस समय चर्चा इस बात की हो रही है कि ममता ने मराठा क्षत्रप शरद पवार से मुलाकात से परहेज क्यों किया।

अगर सभी मोदी विरोधी पार्टियों को एक मंच पर लाना है तो शरद पवार को अहम भूमिका निभानी होगी। पवार इस हफ्ते दिल्ली में मौजूद थे, उन्होंने ममता बनर्जी से मुलाकात नहीं की और शुक्रवार को मुंबई लौट आए। ऐसी अटकलें थीं कि पवार खुद को मोदी विरोधी मोर्चे के नेता के रूप में पेश करने के ममता के कदम से नाखुश हैं।

शुक्रवार को कोलकाता लौटने से पहले ममता बनर्जी ने सफाई देते हुए कहा कि वह पवार से मिल नहीं सकीं, लेकिन उनसे उनकी फोन पर बात हुई है। ममता ने कहा कि वह अपनी अगली दिल्ली यात्रा के दौरान उनसे मिलेंगी। तृणमूल सुप्रीमो ने कहा कि विपक्ष की रणनीति साफ है, मुद्दे स्पष्ट हैं और सारा विपक्ष एकजुट है। उन्होंने कहा, “भारत को बचाने के लिए हमें बीजेपी को हराना है। हमारा नारा होगा 'लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ'।” उन्होंने कहा कि वह हर 2 महीने में दिल्ली का चक्कर लगाएंगी।

ममता बनर्जी भले ही दावा कर रही हों कि अगले चुनावों का नारा सेट है, मुद्दे सेट हैं, लेकिन अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि कौन सी पार्टियां मोदी विरोधी आंदोलन में शामिल होंगी। हो सकता है कि वह मोर्चे की लीडरशिप के बारे में अंदाजा लगाने के बाद ही अपना अगला कदम उठाएं। फिलहाल वह सिर्फ ये कहकर नेतृत्व के सवाल से बच रही हैं कि इस पर चुनाव के बाद फैसला होगा।

उन्होंने कहा, अभी देश के सामने महंगाई, बेरोजगारी, कोविड महामारी और किसान आंदोलन जैसे मुद्दे हैं। बनर्जी को किसानों के धरना स्थल पर जाकर किसान नेताओं से मुलाकात करनी थी, लेकिन वह नहीं गईं। किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा, उनके दौरे की बात हुई थी, लेकिन कोई पुष्टि नहीं हुई। उन्होंने कहा, अगर ममता यहां नहीं आती हैं तो भी किसानों के बारे में उनका रुख स्पष्ट है और उन्हें विपक्षी एकता बनाने की कोशिश जारी रखनी चाहिए।

अगर दिल्ली में बैठे राजनीतिक पंडित यह दावा करें कि ममता बनर्जी खुद को 2024 की तैयारी कर रही हैं और अब वह प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करेंगी, तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा। चूंकि विपक्ष के पास एक नरेंद्र मोदी जैसा दमखम वाला कोई नेता नहीं है, इसीलिए धूम मची रहती है और अटकलें लगती रहती हैं।

मुझे याद है कि एक जमाने में जब लालू यादव बिहार विधानसभा का चुनाव 3 बार जीत गए थे तो लोगों ने कहा था कि अब वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। टीडीपी सुप्रीमो चंद्रबाबू नायडू के बारे में भी यह कहा जाने लगा था कि वह सबको जोड़-तोड़ कर प्रधानमंत्री बन जाएंगे।

आज सब जानते हैं कि विरोधी दलों में एक भी ऐसी पार्टी नहीं है जो बीजेपी को अकेले चुनौती दे सकती है। एकमात्र संभावना यह है कि कई दलों की मिलीजुली सरकार बने। जब भी ऐसी बातें चलती हैं तो इन कयासों को बल मिलने लगता है कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा। इसके बाद नेता प्रधानमंत्री पद के सपने देखने लगते हैं।

मेरी जानकारी में इस मामले में एकमात्र अपवाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बसु थे। वह एक अनुभवी राजनेता थे और उन्हें पता था कि राष्ट्रीय राजनीति की पेचीदगियों को समझना मुश्किल है। उन्होंने खुद को ऐसी महत्वाकांक्षाओं से दूर रखा। जहां तक ममता बनर्जी का सवाल है, यह सच है कि उन्होंने लगातार 3 बार पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव जीता है, लेकिन राज्य के बार उनकी पार्टी का कोई संगठन नहीं है। इसके अलावा, वह देश के बाकी राज्यों में उतनी लोकप्रिय भी नहीं है जितनी कि वह पश्चिम बंगाल में है।

ममता बनर्जी अपनी सीमाओं को अच्छी तकर समझती हैं और इस समय उनके लिए ‘दिल्ली दूर अस्त’ (दिल्ली दूर है) वाली बात हो सकती है। इस समय ममता का फोकस सिर्फ इस बात पर है कि मोदी और बीजेपी को मुद्दों पर कैसे परेशान किया जाए। ममता इसका कोई मौका छोड़ना नहीं चाहतीं और इसीलिए उन्होंने हर 2 महीने पर दिल्ली का चक्कर लगान का फैसला किया है।

मायावती का ब्राह्मण दांव
इस बीच उत्तर प्रदेश में सभी बड़ी पार्टियां अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए रणनीति बनाने में जुटी हुई हैं। अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी जहां OBC और मुस्लिम समुदायों से ताल्लुक रखने वाले अपने समर्थकों को जुटाने में लगी है, वहीं मायावती की बहुजन समाज पार्टी दलित-ब्राह्मण गठबंजोड़ का लक्ष्य लेकर चल रही है। प्रियंका गांधी वाड्रा के नेतृत्व में कांग्रेस एक अलग ही रुख अपनाए हुए है।

ये तीनों पार्टियां विधानसभा चुनावों को अलग-अलग लड़ने की तैयारी में लगी हुई हैं। तीनों ही पार्टियां ब्राह्मण वोटों को लुभाने की कोशिश कर रही हैं। अखिलेश यादव ने 5 अगस्त से राज्य भर में ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया है, जबकि बहुजन समाज पार्टी पहले से ही ब्राह्मण सम्मेलन कर रही है। चूंकि चुनाव आयोग एक विशेष जाति के नाम पर वोट मांगने के लिए नोटिस जारी कर सकता है, इसलिए बीएसपी ने इसका नाम बदलकर 'प्रबुद्ध सम्मेलन' कर दिया है।

अमेठी में हुए एक ब्राह्मण सम्मेलन में बीएसपी नेता सतीश चंद्र मिश्रा ने मृत गैंगस्टर विकास दुबे के प्रति सहानुभूति जताई। मिश्रा ने कहा, ‘योगी सरकार ब्राह्मणों की हत्यारी है। यूपी में ब्राह्मणों की गाड़ी पलटवा कर हत्या करवाई गई। बीजेपी सरकार ब्राह्मणों को चुन-चुनकर निशाना बना रही है। सरकार ने पुलिस को आदेश दिया है, रोको, नाम पूछो और ठोको।’

यह देश का दुर्भाग्य नहीं है तो क्या है कि चुनाव जीतने के लिए जाने-माने नेता खूंखार अपराधियों का महिमामंडन करने लगे हैं। कौन नहीं जानता कि विकास दुबे घोर अपराधी था। कोई कैसे भूल सकता है कि उसने और उसके लोगों ने पिछले साल 2 जुलाई की रात को बिकरू गांव में उसे गिरफ्तार करने के लिए उसके घर गए पुलिसवालों पर गोलियां चलाईं। उस घटना में 8 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई थी। विकास दुबे को उज्जैन में पकड़ लिया गया, और जब उसे यूपी लाया जा रहा था तभी उसकी कार पलट गई और भागते समय एसटीएफ ने उसे ढेर कर दिया।

ऐसे गैंगस्टर को ब्राह्मणों का नायक बताना और उसका महिमामंडन करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता। सतीश चंद्र मिश्रा एक जाने माने वकील हैं। वह जानते हैं कि विकास दुबे ने जघन्य अपराध किए हैं। यह देखकर दुख होता है कि उनके जैसे वकील भी जाति के नाम पर विकास दुबे और उसके साथियों के प्रति सहानुभूति दिखा रहे हैं।

और सिर्फ ब्राह्मण ही क्यों? कुछ दिन पहले ही कुछ लोगों ने पूर्व डकैत फूलन देवी के नाम पर सियासत करने, और उनकी जाति को लोगों से सहानुभूति बटोरने की कोशिश की थी। लेकिन मुझे लगता है कि अब जमाना बदल गया है। जनता अब नेताओं की ऐसी सब चालों को पहचानाती है। आज गांव-गांव में लोगों के पास वॉट्सऐप के जरिए सूचनाएं पहुंचती हैं।  जनता जानती है कि अपराधी कौन है, किसका क्या बैकग्राउंड है और जनता यह भी समझती है कि नेता ऐसे अपराधियों के साथ सहानुभूति क्यों जता रहे हैं। दूसरी तरफ बीजेपी के नेताओं का कहना है कि बीएसपी जितना ज्यादा विकास दुबे जैसे गैंगस्टर का महिमामंडन करेगी, गैंगस्टरों के खिलाफ सख्त रुख के कारण लोग उतना ही ज्यादा पार्टी का समर्थन करेंगे। क्योंकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने साफ-साफ कहा है कि ‘अपराधी किसी भी जाति के हों, बख्शे नहीं जाएंगे।’ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में यही बीजेपी का मुख्य फोकस होगा।

यह सच है कि भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस और लगभग सभी पार्टियां यूपी चुनावों में जाति के नाम पर वोट मांगती हैं। पार्टियों द्वारा जाति के आधार पर उम्मीदवार खड़े किए जाते हैं। तमाम राजनीतिक दल जातियों के आंकड़े भी अपने-अपने हिसाब से देते हैं। को कहता है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण 9 पर्सेंट हैं, कोई कहता है कि 16 पर्सेंट हैं तो किसी का कहना है कि सूबे में इनकी आबादी 12 प्रतिशत है। इसी तरह कोई पार्टी यादवों की आबादी 7 पर्सेंट बताती है तो कोई 13 प्रतिशत। दलितों की आबादी को लेकर भी अलग-अलग आंकड़े दिए जाते हैं। कोई कहता है कि यूपी में 19 प्रतिशत दलित हैं, तो कोई इनकी संख्या 22 फीसदी बताता है।

मैं आपको बता दूं कि किसी के पास भी जातियों की आबादी का कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है। किसी को नहीं पता कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं, क्योंकि भारत में कभी भी जाति आधारित जनगणना हुई ही नहीं है। देश में जातियों की जनगणना आखिरी बार अंग्रेजों के जमाने में 1933 में हुई थी। आज जो भी अनुमान लगाए जाते हैं वे 98 साल पहले हुई उसी जनगणना के आधार पर लगाए जाते हैं। तब से गंगा नदी में बहुत पानी बह चुका है। भारत की जनसंख्या 35 करोड़ से बढ़कर 135 करोड़ हो चुकी है। इसलिए कोई ये नहीं बता सकता कि देश में किस जाति की आबादी कितनी है।

भारत में 2011 में जातिगत जनगणना शुरू हुई थी जो 2016 तक चली, लेकिन उसके नतीजे जारी नहीं किए गए। हां, ये बात तय है कि इस अनुपात के हिसाब से देखें तो पिछड़े सबसे ज्यादा हैं, फिर दलित हैं और सबसे कम आबादी सवर्णों की है। इसलिए जाति आधारित जनगणना के आंकड़े जारी करने की मांग बढ़ रही है।

बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े क्यों मांग रही है आरजेडी?
बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव शुक्रवार को कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के नेताओं के साथ जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने की मां को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलने पहुंच गए। उन्होंने कहा कि बिहार विधानसभा ने जाति आधारित जनगणना के आंकड़े जारी करने की मांग को लेकर 2 बार प्रस्ताव पारित किए हैं, लेकिन केंद्र ने अभी तक कार्रवाई नहीं की है। तेजस्वी ने नीतीश कुमार से कहा कि वह बिहार विधानसभा से पास किए गए प्रस्ताव को केंद्र सरकार के पास भेजें और यह मांग करें कि केंद्र सरकार जल्दी से जल्दी बिहार की जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करे।

नीतीश ने इस मुद्दे पर तेजस्वी को सहयोग का वादा किया। तेजस्वी ने दावा कि मुख्यमंत्री ने कहा है कि वह इस मामले में सारे तथ्य जुटा कर जल्दी ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखेंगे। हालांकि तेजस्वी ने इससे आगे एक और बात कही। उन्होंने कहा कि अगर केंद्र सरकार जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी नहीं करती तो बिहार सरकार को अपने खर्च से जाति आधारित जनगणना करानी चाहिए।

जातिगत राजनीति का बड़ा आयाम यह है कि सारे नेता जाति की राजनीति करते हैं लेकिन कोई कहता नहीं, मानता नहीं। आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने कभी ये नहीं कहा कि वह जाति की राजनीति करते हैं। क्या अखिलेश यादव कभी कहेंगे कि वह मुसलमानों और यादवों की सियासत करते हैं? लेकिन एमवाई समीकरण क्या है, सब जानते हैं। एक मायावती हैं जो खुलकर कहती हैं कि वह दलितों की नेता हैं, लेकिन आजकल वह भी दलित-ब्राह्मण समीकरण बनाने में जुटी हैं। बीजेपी इस बार ओबीसी को पूरा भाव दे रही है। बार-बार गिनाती है कि कितने ओबीसी केंद्र सरकार में मंत्री हैं।

कुल मिलाकर सारे नेता यह तर्क दे रहे हैं कि अगर यह पता होगा कि किस जाति की कितनी आबादी है तो उनके लिए सरकारी योजनाएं बनाने में आसानी होगी। लेकिन अगर जातिगत जनगणना हो गई तो सबसे पहले नारा लगेगा जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी। ज्यादातर विरोधी दलों के नेता जाति के आधार पर जनगणना की मांग कर रहे हैं तो एनडीए के कुछ सहयोगी दल भी इसके पक्ष में हैं। लेकिन मैं आपको बता दूं कि जातिगत जनगणना अब दोबारा नहीं होगी।

एक हफ्ते पहले ही 20 जुलाई को एक सवाल के जबाव में गृह मंत्रालय ने यह संसद में साफ कर दिया था कि अगले साल (2022 में) जब जनगणना की प्रक्रिया शुरू होगी, तो सरकार अनुसूचित जाति/जनजाति के अलावा किसी भी जाति के आंकड़े इकठ्ठा नहीं करेगी। सरकार ने यह भी कहा कि जाति के आधार पर हुए 2011 की जनगणना के आंकड़े भी जारी नहीं किए जाएंगे। इसका मतलब यह हुआ कि जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सियासत अभी लंबे वक्त तक चलेगी। (रजत शर्मा)

देखें: ‘आज की बात, रजत शर्मा के साथ’ 30 जुलाई, 2021 का पूरा एपिसोड

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