असम में सोमवार को जब राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का दूसरा और फाइनल ड्राफ्ट सार्वजनिक किया गया तब करीब 40 लाख से ज्यादा आवेदकों के नाम इससे गायब थे। हालांकि केंद्र और राज्य सरकार ने लोगों को आपत्ति दाखिल करने का पर्याप्त समय दिया है। लेकिन एक बात स्पष्ट हो गई है कि कई लाख विदेशियों को भारत छोड़ना पड़ सकता है।
जरा सोचिए कि दुनिया में कोई भी देश लाखों-विदेशी लोगों को अपनी जमीन पर रहने और वोट देने की इजाजत कैसे दे सकता है? यह अपने ही देश के नागरिकों के हक को छीनने जैसा हुआ। इसलिए अगर विदेशी लोगों की पहचान हो रही है तो सैद्धांतिक तौर पर तो कोई इसका विरोध नहीं कर सकता। इसीलिए चाहे कांग्रेस हो या तृणमूल कांग्रेस या फिर बदरूद्दीन अजमल जैसे नेता हों, कोई भी एनआरसी ड्राफ्ट का विरोध नहीं कर रहा है। इनमें से ज्यादातर लोग इसकी खामियों को गिना रहे हैं। कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं कि एक खास समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है तो किसी का कहना है कि एक खास भाषा बोलनेवालों को निशाना बनाया जा रहा है।
वैसे नागरिकता के इस मसले को आज से 70 साल पहले खत्म हो जाना चाहिए था। पहली बार एनआरसी पर काम 1951 में शुरू हुआ लेकिन पूरा नहीं हो पाया। अब तक करीब 100 ट्राइब्यूनल बन चुके हैं। बांग्लादेश बनने के बाद असम की जनसंख्या में बड़ा असंतुलन देखा गया। 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए आईएमडीटी (Illegal Migrants Detection Tribunal) एक्ट बनाया। यह एक्ट सिर्फ असम के लिए बना था। 1985 में राजीव गांधी ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) के साथ एक समझौता किया लेकिन वह इस तरह से लागू हुआ कि ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष सर्वानंद सोनोवाल कोर्ट चले गए।
2005 में सुप्रीम कोर्ट ने आईएमडीटी एक्ट को खारिज कर दिया और एनआरसी का काम पूरा करने का आदेश दिया। लेकिन जब काम आगे नहीं बढ़ा तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपनी निगरानी में ले लिया। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एनआरसी पर मार्च 2013 से काम शुरू हुआ और अब पांच साल बाद पूरा हो रहा है। एनआरसी को अंतिम रूप देकर इस साल 31 दिसम्बर को प्रकाशित कर दिया जाएगा। सरकार ने साफ किया है कि अगर कोई भारतीय 24 मार्च 1971 से पहले से भारत में रह रहा है तो उसे घबराने की जरूरत नहीं है।
मेरा उदाहरण लें, मैं जन्म से दिल्ली में रह रहा हूं लेकिन कोई मुझसे पूछे कि मैं मूल रूप से कहां का रहना वाला हूं तो मैं इतना तो बता सकता हूं कि मेरे पिता 1950 में राजस्थान से दिल्ली आए थे। मेरा परिवार मूल रूप से राजस्थान के साडास गांव का है। मेरे दादा जी का नाम पंडित गौरीशंकर है। ठीक यही सवाल असम के लोगों से पूछे जा रहे हैं। जो लोग बाहरी हैं, जिनकी जड़ें विभाजन के बाद इस देश में नहीं हैं, जो बांग्लादेश से आए हैं वे लोग इन सवालों के जवाब नहीं दे पा रहे हैं। इसीलिए दिक्कत हो रही है।
बड़ा सवाल है कि ये 40 लाख लोग कहां जाएंगे? कोई भी हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश से इन्हें वापस लेने की उम्मीद नहीं कर सकता। तो फिर ये लोग कहां रहेंगे? इस सवाल का जबाव फिलहाल सरकार ने नहीं दिया है और इसका जवाब मिलना जरूरी है। (रजत शर्मा)