कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी गुरुवार को विजय माल्या से जुड़े विवादों में कूद पड़े जब उन्होंने आरोप लगाया कि भगोड़े शराब कारोबारी विजय माल्या और वित्त मंत्री अरुण जेटली के बीच 'मिलीभगत' थी। उन्होंने जेटली से इस्तीफे की मांग के साथ ही इस बात की भी जांच की मांग की है कि क्यों भारत छोड़कर भागने से एक दिन पहले माल्या ने संसद में अरुण जेटली से मुलाकात की।
हालांकि तथ्य इससे बिल्कुल अलग इशारा करते हैं। इस बात से तो कांग्रेस भी इनकार नहीं कर सकती कि विजय माल्या की कंपनियां डूब रही थीं। उनके ऊपर बैंकों का हजारों करोड़ का कर्ज था और कर्ज लौटाने में माल्या की कोई रुचि भी नहीं थी। इसके बाद भी डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार ने नियमों को ताक पर रखकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर दबाव डाला कि वो माल्या की कंपनियों को और लोन उपलब्ध कराए। ये लोन भी डूब गया तो फिर से इसकी रिस्ट्रक्चरिंग की गई। बैंक माल्या को और लोन देने के पक्ष में नहीं थे और विरोध कर रहे थे। विरोध के बाद भी उस वक्त के प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने बैंकों पर दबाव डाला और माल्या को लोन दिलवाया। माल्या ने मदद के लिए इनलोगों को धन्यवाद देते हुए चिट्ठी भी लिखी।
ऐसी स्थिति में स्वाभाविक तौर पर सवाल तो पूछे ही जाएंगे। ये बात भी सही है कि 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से माल्या की कंपनियों को एक रुपया भी कर्ज के तौर पर नहीं दिया गया। उल्टे बैंकों के कर्ज को वापस करने के लिए उनपर दबाव बनाया गया और कानूनी कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू की गई। यही वजह है कि माल्या सारी जमीन जायदाद छोड़कर विदेश भागने पर मजबूर हुआ।
कांग्रेस इस सवाल का जबाव नहीं दे रही है कि माल्या की कंपनियों की खस्ता हालत को देखने के बाद भी उसे हजारों करोड़ के लोन किस आधार पर दिए गए। वो भी एक बार नहीं बल्कि कई बार दिए गए। कांग्रेस इससे हटकर इस बात को मुद्दा बना रही है कि माल्या ने विदेश भागने से पहले अरुण जेटली से मुलाकात की। यह मुद्दा उसी दिन खत्म हो जाना चाहिए था जिस दिन माल्या ने खुद कहा कि जेटली के साथ उनकी कोई पहले से तय मीटिंग नहीं थी।
वहीं बीजपी की तरफ से तत्कालीन प्रधानमंत्री दफ्तर की जो चिट्ठियां दिखाई गई और जो ब्यौरा दिया गया, उससे तो ये जाहिर होता है कि यूपीए की सरकार किस कदर विजय माल्या पर मेहरबान थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री, माल्या और उसके समूह की कंपनियों की मदद में लगे थे। बैंक के वरिष्ठ अधिकारियों के इनकार के बाद भी माल्या और उसके समूह की कंपनियों की मदद करने के लिए कांग्रेस दबाव बना रही थी। वित्त मंत्री के तौर पर अरुण जेटली ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने लोन चुकाने के लिए माल्या पर दबाब बनाया और प्रत्यर्पण के लिए ब्रिटेन की अदालत में कार्रवाई शुरू की। इस भगोड़े शराब कारोबारी के वकीलों ने 'भारतीय जेलों की खराब स्थिति' का मुद्दा उठाया लेकिन जब ब्रिटिश अदालत में ऑर्थर रोड जेल का वीडियो देखा गया तो माल्या के वकीलों के पास कोई जवाब नहीं था।
कांग्रेस भले ही इसे बड़ा सियासी मुद्दा समझ रही है लेकिन कांग्रेस को दो बातें नहीं भूलनी चाहिए। एक, अरुण जेटली की ईमानदारी पर उनके दुश्मन भी शक नहीं करते और दूसरा, विजय माल्या के केस में ब्रिटेन की अदालत में फैसला दस दिसंबर को आना है और उस दिन जब विजय माल्या बयान देंगे तो कांग्रेस को मुश्किल हो सकती है। (रजत शर्मा)