बीजेपी-शिवसेना गठबंधन ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को मात देते हुए आसानी से बहुमत हासिल कर लिया। वहीं, हरियाणा में बीजेपी बहुमत के आंकड़े से 6 सीट पीछे रहते हुए सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। सभी की नजर अब निर्दलीय विधायकों और दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी पर है क्योंकि बीजेपी ने सरकार बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। बीजेपी के पास दोनों विकल्प उपलब्ध हैं और यह पार्टी नेतृत्व को तय करना है कि क्या किया जाए।
हरियाणा में बीजेपी को टिकट बांटने में हुई गलतियों की कीमत चुकानी पड़ी। पार्टी के कई असंतुष्ट नेता, जिन्हें टिकट नहीं दिया गया था, ने निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। पार्टी के 2014 के प्रदर्शन को दोहराने में कामयाब न हो पाने के कई अन्य कारण भी थे। एक बात तो सभी मानते हैं कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने 5 साल तक भ्रष्टाचार मुक्त शासन दिया और सभी जातियों एवं समुदायों के लिए बगैर किसी भेदभाव के काम किया। हालांकि, मंत्रियों के प्रदर्शन से मतदाता नाखुश थे। यही वजह थी कि खट्टर सरकार के 10 में से 8 मंत्री चुनाव हार गए।
इस विधानसभा चुनाव ने दुष्यंत चौटाला के प्रमुख गैर-कांग्रेसी विपक्षी नेता के रूप में उभरने का भी संकेत दिया है। उन्होंने पूरे राज्य में प्रचार किया, बीजेपी एवं कांग्रेस से बागियों को टिकट दिया और उनकी पार्टी जेजेपी अपने पहले ही चुनाव में 10 सीटें जीतने में सफल रही। 31 साल की उम्र के नेता के लिए यह कोई छोटी बात नहीं है। दुष्यंत 26 साल की उम्र में लोकसभा में सबसे कम उम्र के सांसद बने, 30 साल की उम्र में अपनी पार्टी बनाई और राजनीति में अपने ही परिवार के सदस्यों को चुनौती दी। उनके दादा ओम प्रकाश चौटाला द्वारा बनाई गई इंडियन नेशनल लोक दल इन चुनावों में केवल एक सीट जीत पाई।
बीजेपी हरियाणा में निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बना सकती है, लेकिन दो बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। पहली, पार्टी का नेतृत्व अति-आत्मविश्वास से भरा हुआ था। बीजेपी 75-प्लस सीटों की बात कर रही थी, क्योंकि पार्टी को लग रहा था कांग्रेस और चौटाला परिवार बंटे हुए हैं और कोई भी ऐसा नहीं है जो उन्हें चुनौती दे सके। यह आकलन गलत साबित हुआ। यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में प्रचार नहीं किया होता, तो पार्टी बुरी तरह मुश्किल में फंस सकती थी। लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने सभी 10 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी, और उसे 79 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल थी। विधानसभा चुनावों में यह बढ़त घटकर लगभग आधी रह गई है।
दूसरी, हरियाणा चुनावों में साफतौर पर एक बंटी हुई कांग्रेस लड़ रही थी, लेकिन फिर भी वह 31 सीटें जीतने में कामयाब रही। राज्य इकाई के प्रमुख अशोक तंवर, जिन्होंने पिछले 5 सालों से पार्टी का नेतृत्व किया, ने ‘हाथ’ का साथ छोड़ दिया और दुष्यंत चौटाला की पार्टी का समर्थन किया। कल्पना कीजिए कि यदि राज्य इकाई में एकता होती तो कांग्रेस कहां तक पहुंच सकती थी। अंत में बाजी बीजेपी के खिलाफ जा सकती थी।
महाराष्ट्र में इस बार के चुनाव परिणामों की तुलना 2014 के विधानसभा चुनावों के परिणामों से नहीं की जा सकती। उस समय 4 मुख्य खिलाड़ी, बीजेपी, शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे। बीजेपी नेतृत्व ने अंदाजा लगाया कि एंटिइंकम्बैंसी के चलते नुकसान हो सकता है इसलिए उसने शिवसेना के साथ गठबंधन किया। बीजेपी ने 164 सीटों पर चुनाव लड़ा और 105 में जीत हासिल की, जबकि शिवसेना 124 में से 56 सीटें जीतने में कामयाब रही। बीजेपी और शिवसेना दोनों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा। एक, पार्टी के बागियों से जिन्होंने टिकट न मिलने के चलते दूसरी पार्टियों का दामन थाम लिया था, और दो, दोनों पार्टियों ने अन्य दलों के दलबदलुओं को साथ लिया और उन्हें टिकट दिया। इसका परिणाम: फायदा कम, नुकसान ज्यादा।
केवल नरेंद्र मोदी जैसे बड़े दिल वाले राजनेता ही चुनावी उलटफेर के बावजूद अपने राज्य के नेतृत्व की प्रशंसा कर सकते हैं। उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों में जीत का श्रेय राज्य के नेतृत्व को दिया। हकीकत यह है कि बीजेपी का चुनाव अभियान हमेशा मोदी पर निर्भर होता है। यदि प्रधानमंत्री रैलियों को संबोधित करने के लिए दोनों राज्यों का दौरा नहीं करते, तो नतीजे उल्टे भी हो सकते थे। दोनों राज्यों के मतदाताओं को मोदी के नेतृत्व में जबरदस्त भरोसा है और वे राज्य इकाइयों के प्रदर्शन की परवाह किए बिना पार्टी को वोट देने के लिए निकले। (रजत शर्मा)
देखें, 'आज की बात' रजत शर्मा के साथ, 24 अक्टूबर 2019 का पूरा एपिसोड