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BLOG: ''प्‍लीज अंकल मेरे पापा को बचा लीजिए…और हमने कांपते हुए खुद से वादा किया आज किसी को मरने नहीं देंगे''

मुझे दुःख है इस बात का कि जिस हिंदुस्तान को हम बदलते देखना चाहते हैं वो इतना निर्दय कैसे हो सकता हैं। अगर हमारी जनसंख्या सवा सौ करोड़ हैं तो इसका मतलब ये नहीं की हम सड़क पर तड़पते हुए मर जाए...

Written by: Prashant Tiwari
Updated on: September 04, 2018 13:41 IST
road accident- India TV Hindi
road accident

प्रशांत तिवारी-

कुछ बातें कहानियां लगती हैं और कुछ घटनाएं बुरा ख़्वाब.. आज जब सुबह मेरी आँख खुली तो मुझे रात की हुई घटना एक बुरे ख़्वाब की तरह याद आ रही थी और मैं सहम गया। बार-बार वो चीख.. मेरे कानों में गूंज रही थी जब एक लड़की हाईवे के डिवाइडर पर खड़ी चिल्ला रही थी.. पुलिस.. पुलिस.. एम्बुलेंस एम्बुलेंस.. पुलिस अंकल मेरे पापा को बचा लीजिए.. और वही ज़मीन पर पड़ा था वो बेबस बाप जो ना तो हिल सकता था ना ही खुद अपनी बेटी की मदद कर सकता था उठने में, क्योंकि हादसे में उसके हाथ और कूल्हों में चोटें आई थी और पुलिस वाले उस लड़की की तरफ ध्यान तक नहीं दे रहे थे।

फिर सड़क के दूसरी तरफ लगभग 65 साल उम्र से भी ज़्यादा की वृद्ध महिला की कराहते हुए “ बचा लो.. बचा लो.. की आवाज़ मेरे रोंगटे खड़े कर दे रही थी..” थोड़ा सा आगे, पूरी तरह कुचली हुई स्विफ्ट गाडी में फंसे युवक को वहां के ग्रामीण निकालने की कोशिश कर रहे थे और वो युवक शांत बैठा हुआ था शायद उसे होश नहीं था। बस उसी के बगल में लेटा वो शख्श जिसके पैरों में चोट आई थी, सर से खून निकल रहा था.. बस इतना कह रहा था “मेरे परिवार के लोग हैं..”

दूसरी तरह एक महिला जिसे हमने सड़क के डिवाइडर से उठा कर खुद किनारे लाए थे वो कुछ कह ही नहीं पा रही थी। और आखिर में वो ड्राइवर की लाश जिसको देख कर मेरी आंखे खुली की खुली रह और पैर तक कांपने लगे... ये बुरा ख्वाब नहीं हैं तो क्या हैं.... सामने पुलिस की गाड़िया लाइट जलती हुई इधर से उधर घूम रही थी पर मदद के नाम सिर्फ एम्बुलेंस का इंतज़ार कर रही थी और एम्बुलेंस का कहीं कोई नामो निशान तक नहीं था। उन्हें खुद नहीं पता था कब आएगी..बस एक जवाब जल्दी आएगी।

एक्सीडेंट लोकेशन- यमुना एक्सप्रेस वे.. आगरा टोल प्लाजा के पास

समय और तारीख- 27 जनवरी रात के 8 बजे

मृत्यु- 1 ड्राइवर

घायल- 6 जिसमे 3 बुरी तरह जख्मी

ये हादसा जब हम आगरा टोल पार करके नोएडा की तरफ जा रहे थे उसके 5 से 10 किलोमीटर की दूरी पर हुआ था, समय की बात करे तो वहां के लोकल के हिसाब से लगभग रात के 8 बजे हुआ। घटना को हुए लगभग 1.30 घंटे बीत चुके थे और मैं और मेरे साथी मित्र अभिनव गुप्ता वहां से गुजर रहे थे तब अभिनव ने गाड़ी रुकवाई और हम उतरे और वहां के हालात को देख कर पैर कांपने लगे.. पर जैसे ही अभिनव ने हिम्मत दी तब हमें समझ आया कि ये घायल पिछले घंटों से पड़े कराह रहे हैं ना तो एम्बुलेंस आई और ना ही कोई इनको हॉस्पिटल भेजने की कोशिश कर रहा हैं।

तब हमनें पुलिस से बात की तो पुलिस ने हमें भी इंतज़ार करने के लिए कहा.. तो हमें मेरठ की वो घटना याद आ गई जिसमें 2 घायलों की पुलिस ने मदद नहीं की और उनकी मौत हो गई..पर आज हम किसी को मरने नहीं देंगे। जब बाद में ये बताने पर की हम पत्रकार हैं और कैमरे के सामने पुलिस को हमारी बात माननी पड़ी। हमने घायलों को पुलिस की गाडी में बैठाकर हॉस्पिटल भिजवाना शुरू किया फिर करीब घटना के पौने 2 घंटे बाद एक एम्बुलेंस आती हैं जिसमे सिर्फ दो घायल को हम वहां के ग्रामीणों की मदद से एम्बुलेंस तक पंहुचा देते है। और पुलिस खड़ी सिर्फ तमाशा देखती रही यहां तक की उसने जो गाड़िया पूरी रफ़्तार से आ रही थी उनको भी धीरे या रोकने का प्रयास नहीं किया। जब हम डिवाइडर से घायल को कम्बल में बैठा कर ला रहे थे उस वक़्त हम लोग भी किसी गाड़ी की चपेट में आ सकते थे पर हमारी पुलिस दूर खड़ी होकर सिर्फ इतना कह रही की जल्दी आओ जल्दी आओ।

मुझे दुःख है इस बात का कि जिस हिंदुस्तान को हम बदलते देखना चाहते हैं वो इतना निर्दय कैसे हो सकता हैं.. अगर हमारी जनसंख्या सवा सौ करोड़ हैं तो इसका मतलब ये नहीं की हम सड़क पर तड़पते हुए मर जाए और ना कोई एम्बुलेंस ना कोई दवा..। उसके बाद तब पुलिस का काम..सबसे पहले डेडबॉडी को उठाकर अपनी गाड़ी में रखकर पोस्टमार्टम के लिए भेजना.. हमें भी ज़िंदा रहने का हक़ हैं।

फिर हमने वहां के ग्रामीणों की मदद से सभी को हॉस्पिटल भिजवा दिया और फिर निकल पड़े घर की ओर ये सोचते हुए कि आखिर क्यों यमुना एक्सप्रेस वे जैसे हाईवे पर इतनी लापरवाही..? आखिर क्यों किसी कि जान लोगों को इतनी सस्ती लगती हैं.. आखिर जो उत्तर प्रदेश पुलिस एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बनती फिर रही हैं उसे लोगों का दर्द दिखाई या सुनाई क्यों नहीं दिया..? आखिर क्यों हमेशा सड़क पर हुए हादसों को दरकिनार कर दिया जाता हैं.. क्यों आज भी सबसे बुनियादी ज़रूरत 'स्वास्थ सेवा' इतनी कमज़ोर क्यों है..? या जो सड़कों पर मरते हैं उनका कोई अपना नहीं होता क्या.. आखिर क्यों सब खामोश हैं.. लेकिन मैं शुक्रिया अदा करता हूं उन ग्रामीणों का जो आखिर तक जुटे रहे.. साथी अभिनव गुप्ता का...।

वहां कोई भी हो सकता था, मैं आप या कोई तीसरा या फिर उन पुलिस वालों के परिवार के लोग लेकिन मेरे जेहन में बार बार एक ही सवाल उठ रहा है जब सिस्‍टम है तो वह लोगों के काम क्‍यों नहीं आता, हमारी पुलिस, हमारी सरकार हमारे लिए कुछ करती हुई दिखती क्‍यों नहीं ?

(इस ब्लॉग के लेखक प्रशांत तिवारी युवा पत्रकार हैं)

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