भोपाल/ग्वालियर: ग्वालियर से नाता रखने वाले हास्य कवि प्रदीप चौबे ने जब भी मंच पर अपनी रचनाएं पढ़ीं तो हर तरफ ठहाके ही गूंजे। उनकी रचनाओं में व्यवस्था पर तीखे कटाक्ष होते थे। हमेशा श्रोताओं और मित्रों के बीच हंसाने वाले व्यक्तित्व के तौर पर पहचाने जाने वाले चौबे गुरुवार की रात ग्वालियर ही नहीं, दुनिया को ही छोड़कर चले गए! जिन्हें कभी हंसाया था, उन सभी को रुला गए।
मूल रूप से आगरा के निवासी प्रदीप चौबे का जन्म 26 अगस्त, 1949 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर में हुआ था, मगर देश और दुनिया में उन्हें ग्वालियर के निवासी के तौर पर पहचाना गया। चौबे का 1974 में ग्वालियर आना हुआ और फिर यहीं के होकर रह गए। शुरुआती दौर में प्रदीप चौबे को कवि शैल चतुर्वेदी के भाई के तौर पर पहचाने गए, मगर वे इस छाया से धीरे-धीरे अपने को निकालने में सफल हुए और सन् 1990 तक आते-आते वे अपनी अलग पहचान बना चुके थे।
चौबे की रचनाएं और पढ़ने का उनका अंदाज हर किसी को लोटपोट कर देता था। वे नॉन स्टॉप ठहाकों की गारंटी माने जाते थे। यही कारण है कि उन्हें कवि सम्मेलनों में हास्य का 'छोटा सिलेंडर' कहा जाने लगा था। उनकी पैरोडी सबसे ज्यादा चर्चित होती थी।
प्रदीप चौबे को लगभग साढ़े चार दशकों से करीब से जानने वाले लेखक, कवि और पत्रकार राकेश अचल कहते हैं, "उनके अचानक जाने की खबर मेरे लिए किसी वज्रपात से कम नहीं है। इस खबर से मेरे भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूटा है। मैं एक वाक्य में कहूं तो 'एक कहकहे का अवसान हो गया' एक ऐसा कहकहा, जिसने देश की उदास, निर्वाह और अवसादग्रस्त जनता को पूरे 45 साल हंसाया, गुदगुदाया और ठहाके लगाने की कला सिखाई।"
वे आगे कहते हैं, "प्रदीप जी लगातार ऊंचाइयां पाते गए, लेकिन अपनी जड़ों से कभी नहीं कटे, देश के बाहर एक दर्जन से अधिक देशों में अपनी कविताओं के साथ गए और सराहे गए। वे जिसके प्रशंसक होते, उसके लिए सारे आवरण हटा लेते और जब आलोचना करते तो खुलकर करते। इस गुण-अवगुण ने उन्हें दिया भी बहुत और उनसे छीना भी बहुत कुछ।"
ग्वालियर के कमल सिंह का बाग में रहने वाले प्रदीप चौबे का आवास अब विनयनगर में है। वे कभी देना बैंक के कर्मचारी हुआ करते थे। उन्हें जब लगा कि वे अपनी व्यस्तता के बीच बैंक को पूरा समय नहीं दे पा रहे हैं तो उन्होंने अनिवार्य सेवानिवृत्ति ले ली। चौबे अपनी नौकरी को लेकर भी व्यंग्य करने से नहीं चूकते थे। उनके करीबी बताते हैं कि जब भी कोई उनसे पूछता कि कहां नौकरी करते हैं, तो उनका जवाब होता, "देना बैंक में, वहां देना ही देना होता है।"
प्रदीप चौबे की व्यवस्थाओं पर चोट करती रचनाएं हमेशा चर्चाओं में रहीं। रेल यात्रा पर उनकी रचना 'रेलमपेल' काफी चर्चाओं रही। उनकी 'हल्के-फुल्के', 'बाप-रे-बाप', 'बेस्ट ऑफ प्रदीप चौबे', 'बहुत प्यासा है पानी', 'खुदा गायब है', 'बाप रे बाप', 'आलपिन', 'चले जा रहे हैं', 'शव यात्र' आदि उनकी प्रमुख रचनाएं थीं।
प्रदीप चौबे को पूर्व राष्ट्रपति डॉ़ शंकरदयाल शर्मा ने 'लोकप्रिय हास्य-कवि' के रूप में सम्मानित किया था। उन्हें 'काका हाथरसी पुरस्कार' भी मिला था।
हास्य-कवि को करीब से जानने वाले बताते हैं कि पिछले दिनों जब उनके छोटे बेटे की मौत हुई तो उसके बाद वे बुरी तरह टूट चुके थे। स्वयं कैंसर जैसी बीमारी से जूझ रहे थे। उसके बाद भी चौबे ने कभी अपना दर्द किसी से साझा नहीं किया।
ग्वालियर के महापौर विवेक शेजवलकर बताते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की याद में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इस आयोजन की जिम्मेदारी प्रदीप चौबे पर थी। आयोजन से ठीक एक दिन पहले प्रदीप चौबे के बेटे का निधन हो गया। उन्होंने अपने दुख को जाहिर नहीं होने दिया और उस आयोजन में पूरा सहयोग किया।
चौबे के करीबियों से मिली जानकारी के अनुसार, चौबे कुछ अरसे से कैंसर से पीड़ित थे और उनका उपचार चल रहा था। गुरुवार को ही एक निजी अस्पताल से उन्हें छुट्टी मिली थी। घर पर देर रात को उन्हें घबराहट हुई और उसके बाद उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गई। अस्पताल ले जाया गया, जहां रात लगभग दो बजे उन्होंने अंतिम सांस ली।
हास्य-कवि चौबे अपनी रचनाओं के जरिए लोगों को गुदगुदाते तो थे ही, साथ में व्यवस्था पर गंभीर चोट भी करते थे। उनका अपनी रचनाएं पढ़ने का अंदाज निराला था। वे अपने मित्रों के बीच भी हंसमुख व्यक्ति के तौर पर पहचाने जाते थे।