आपको जरनैल सिंह याद है, हां वही पूर्व पत्रकार जिन्होंने तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम पर प्रेस कांफ्रेंस में जूता फेंका था, वो देश का पहला जूता कांड था। रातों रात जरनैल सिंह स्टार बन गए और लगे हाथ अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ने जरनैल सिंह को सिख बहुल इलाके से विधानसभा चुनाव में टिकट दे दिया और फिर जरनैल सिंह विधायक बन गए। क्यों फेंका, कैसे फेंका और क्या मकसद था, इस पर बाद में चर्चा करूंगा।
4 मई को अरविंद केजरीवाल पर एक आदमी ने हमला किया तो देश भर से प्रतिक्रियाएं आ रही है। ट्विटर पर #KejriwalSlappedAgain ट्रेंड करने लगा। लोग और राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से इसे सही-गलत बताने में लगे हैं लेकिन एक बात सब भूल रहे हैं कि अगली बारी आपकी या आपके प्रिय नेता की हो सकती है। रही बात दिल्ली पुलिस की तो केजरीवाल से विशेष प्यार करने वाली दिल्ली पुलिस ने फ़टाफ़ट जांच करके ये बता दिया कि थप्पड़ मारने वाला व्यक्ति सुरेश आम आदमी पार्टी का ही कार्यकर्ता था जबकि सुरेश की पत्नी चीख-चीखकर सब चैनलों में इंटरव्यू दे रही है कि उसका पति प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता।
हालांकि केजरीवाल के ऊपर कुल मिलाकर अब तक करीब आधे दर्जन ऐसे हमले हो चुके है, कभी जूता तो कभी स्याही, मिर्च पाउडर या अंडे लेकिन केजरीवाल और उनके समर्थकों ने शनिवार की घटना को ऐतिहासिक घटना बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है। मनीष सिसोदिया ने तो इसे पीएम मोदी और अमित शाह की साजिश बता दिया और केजरीवाल की हत्या की कोशिश का आरोप भी जड़ दिया। आम आदमी पार्टी से बेआबरू होकर निकले और एक बार फिर खुद को पत्रकार बताने वाले आशुतोष ने इसे लेकर दिल्ली पुलिस कमिश्नर को हटाने की मांग भी कर डाली।
एक के बाद एक भर्त्सना वाले बयान आ रहे हैं और आने भी चाहिए लेकिन बात घूम फिरकर वहीं आ जाती है कि अगर जूता फेंकने से जरनैल सिंह विधायक बन गए तो दूसरे व्यक्ति भी अपनी दबी इच्छा को प्रकट क्यों ना करे, क्या पता उनकी भी लॉटरी लग जाये। फिर रिस्क तो इसमें भी है। जरनैल सिंह को तो खरोंच भी नहीं आयी थी लेकिन उसके बाद के ज्यादातर मामलों में आरोपी की जमकर पिटाई हुई। नेता को चोट लगी हो या नहीं, स्याही निशाने पर गयी हो या बगल में गिर गयी हो, घटना के बाद मौजूद नेता समर्थक उस मौकापरस्त या सनकी कहे जाने वाले आरोपी की तबियत से कुटाई करते देखे जा सकते हैं।
यही केजरीवाल को थप्पड़ मारने वाले व्यक्ति के साथ भी हुआ। आपने देखा होगा कि अरविंद केजरीवाल के ऊपर थप्पड़ चलाने के बाद उस व्यक्ति को केजरीवाल समर्थकों ने कितनी धुनाई की। फिलहाल मैं इसमें mob lynching की बहस नहीं घुसाउंगा क्योंकि फिर मूल मुद्दा भटक जाएगा। वापस उसी सवाल पर आते हैं कि आखिरकार नेताओं पर हो रहे इस तरह के हमले क्यों हो रहे हैं और इसका समाधान क्या है ? इसका उत्तर ढूंढने के लिए आपको ये समझना होगा कि किसी भी हालत में ये सही नहीं है।
आप किसी नेता या पोलिटिकल विचारधारा के समर्थक या विरोधी हो सकते है, तमाम मुद्दों पर असहमति हो सकती है लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नफ़रत और हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। आखिरकार हमने इसी नफरत की वजह से गांधी जी को खोया था या फिर इंदिरा गांधी शहीद हुई थीं। मैं साफ कर दूं कि मैं कतई महात्मा गांधी या इंदिरा गांधी से अरविंद केजरीवाल की तुलना नहीं कर रहा हूं और ये तुलना हो भी नहीं सकती है लेकिन इन सबके बुनियाद में एक बात कॉमन है- नफ़रत। मत भूलिए कि दाऊद इब्राहिम अपने शुरुआती दिनों में टिकट ब्लैक करता था, बड़े से बड़ा गुंडा या बलात्कारी अपने प्रारंभिक दिनो में गली- मोहल्ले में छिटपुट घटनाएं करते थे। मतलब कि अगर शुरुआत में लगाम लगा दी जाए तो बड़े हादसों को टाला जा सकता है। जबकि इसके विपरीत ऐसे लोगों का महिमामंडन करने से ये भावना जंगल में आग की तरह फैलती है।
यही हुआ जब जरनैल सिंह को अरविंद केजरीवाल ने उसके निंदनीय हरकत पर ईनाम दिया और वो विधायक बने। फिर क्या था, खुद केजरीवाल पर ही कई बार, किस्म-किस्म के हमले हुए। शरद पवार को चांटा लगा, रामदेव पर स्याही फेंकी गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सामने विज्ञान भवन में एक व्यक्ति ने अपनी शर्ट उतारी और नारेबाजी की। कॉमनवेल्थ घोटाले के आरोपी सुरेश कलमाडी पर चप्पल फेंका गया। आरुषि मामले में कोर्ट में राजेश तलवार को गंडासे से गला काटने की कोशिश की गयी। एक रिपोर्टर के नाते ज्यादातर घटनाओं का मैं स्वयं चश्मदीद रहा हूं। हर बार ऐसी घटना होती नहीं कि हम ये खंगालने में जुट जाते है कि अमुक व्यक्ति कौन है, कहां से आया है किसलिए उसने ऐसा किया और कभी-कभार तो हम जूता या चप्पल का ब्रांड बताने लगते हैं।
अब इस मीडिया कवरेज से किसका मन नहीं डोलेगा, ख़ासकर जब जरनैल सिंह को केवल इसलिए विधायक बना दिया गया था। चूंकि मैं बार-बार जरनैल सिंह का जिक्र कर रहा हूं और अब वे माननीय विधायक भी है। इससे अहम बात ये है कि इसमें अति संवेदनशील 1984 सिख विरोधी दंगा का मामला जुड़ा हुआ है तो सबसे पहले मैं उसी घटना के क्यों, कहां और कैसे वाले पहलुओं पर कुछ बातों को सामने लाना चाहूंगा। मुझे आज भी वो घटना पूरी तरह से याद है। कांग्रेस मुख्यालय में पी. चिदंबरम प्रेस कांफ्रेंस करने आये थे। अपने साथी रिपोर्टर मिथिलेश सिंह के आग्रह पर मैं भी सुप्रीम कोर्ट से कांग्रेस ऑफिस पहुंचा था और प्रेस कांफ्रेंस शुरू होने पर सबसे अगली वाली कतार में लगी कुर्सी पर बैठा था। मेरी दायीं तरफ की कुर्सी पर मेरे साथी मिथिलेश सिंह थे और मेरी बांयीं तरफ की कुर्सी पर बैठे थे जरनैल सिंह जो कि उस समय एक हिंदी अखबार के रिपोर्टर थे। अचानक जरनैल सिंह ने अपना जूता उतारा, पास में बैठने की वजह से मुझे बदबू आयीं तो मैने मिथिलेश की तरफ मुड़कर इसकी शिकायत भी की। अचानक जरनैल सिंह ने 2 मीटर से भी कम दूरी पर बैठे तत्कालीन गृहमंत्री पी.चिदंबरम की तरफ जूता उछाला। जरनैल सिंह ने पूरी सावधानी बरतीं कि चिदंबरम को जूता ना लगे। अगर वो व्यथित होते तो जूता उतारकर उससे चिंदबरम को बार-बार मारने तक की कोशिश भी करते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
सामान्य मनोविज्ञान तो यही है लेकिन जरनैल सिंह तथाकथित तौर पर गृहमंत्री के सिख दंगे से जुड़े मामले में कुछ नहीं करने से बेहद दुखी होने के वाबजूद चिदंबरम को चोट नहीं पहुंचाना चाहते थे। वो बस प्रतीकात्मक विरोध जता रहे थे ताकि अमेरिकी राष्ट्रपति बुश पर जूता मारने वाले पत्रकार की तरह फेमस हो सके। जरनैल सिंह इसमें सफल भी हुए। अचानक वो सिख विरोधी दंगों के लिए न्याय मांगने वाले नए प्रतीक के तौर पर उभरे। हालांकि न्याय मांगने की उनकी ये लालसा कुछ ही महीनों में शांत हो गयी और दिल्ली में विधायक बन जाने के बाद जरनैल सिंह की सरकार ने जब पी. चिदम्बरम को सुप्रीम कोर्ट में अपना वकील नियुक्त किया तो जरनैल सिंह ने विरोध में कुछ भी नहीं कहा। अब वही चिदम्बरम उनके मददगार बन चुके थे।
जरनैल सिंह के बगैर सिख दंगे में न्यायिक प्रक्रिया जारी रही और आज सज्जन कुमार आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं। ध्यान से सोचिए तो थप्पड़ मारने वाला या जूता फेंकने वाले व्यक्ति ऐसा ही अवसरवादी या सनकी होता है। इसमे एक भी ऐसा नहीं है जो कहे कि निजी तौर पर उसके साथ अमुक नेता ने इतना अन्याय किया है कि वो बदला लेने के लिए उतारू था और इसलिए उसने हमला बोला। सब घटना में एक ही बात है कि पब्लिसिटी मिलेगी। जिस नेता पर हमला होता है उससे पक्ष में जुड़े लोग या संगठन निंदा करने वाले बयान जारी करते हैं और विरोधी मजे लेते हैं। जेड प्लस या उससे अधिक सुरक्षा प्राप्त राजनेताओं को लगता है कि उनके साथ तो ऐसा होगा नहीं इसलिए वो इसे लेकर खासे बेफ़िक्र नज़र आते हैं। अगर हम सब वाकई ऐसी घटनाओं से चिंतित हैं तो हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। ऐसे हमलावरों को महिमामंडन करने से बचना होगा और अगर जिन पर हमला हुआ हो वो विपक्षी दल का राजनेता हो तब भी उनके साथ खड़ा होना होगा। याद रखिये लोकतंत्र को अगर सुरक्षित रखना है तो उसे ऐसे दीमक से बचना होगा वरना ऐसी घटनाएं होती रहेंगी।